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________________ - चैतन्य की चहल-पहल पुन: एक अत्यंत हृदयग्राही तथ्य भी हमारा ध्यान आकर्षित करेगा और वह यह कि वस्तु की वृत्ति को स्वयं वस्तु में ही विराम न मिले, यह विधान किसने बनाया? माँ की गोदी में अपने ही बालक को धारण करने की क्षमता कब नहीं रहेगी? और वस्तु की वृत्ति अपनी ही वस्तु के अनंत एवं अपरिमित वैभव में संतुष्ट न हो और अन्य की ओर आकर्षित होकर अन्य सत्ताओं में अपना प्रेय एवं श्रेय तपासती फिरे, जगत् में इससे बड़ा आश्चर्य भी क्या होगा? सुमन की सौरभ को स्वयं अपने सुमन में संतोष नहीं, तो फिर जगत् में वह कौन-सा सुमन होगा जो इस सौरभ को अपने में शरण देगा? और वृत्ति को वृत्तिमान में विराम न मिले, लोक में यह लचर व्यवस्था किसने पैदा की? निश्चित ही इस कल्पना में किसी स्वस्थ एवं सुन्दर विश्व की उपलब्धि तो नहीं हो सकेगी। अत: वृत्ति को वृत्तिमान का अवलम्बन ही विश्व का परम सौंदर्य है। .. सम्यक् श्रद्धा का श्रद्धेय पूर्ण ही होता है ___ शुद्ध चैतन्यसत्ता मिथ्यादर्शनादि विकारी पर्याय समुदाय से विकारी नहीं बनती वरन् उस शुद्ध चैतन्यसत्ता का अदर्शन अर्थात् अविश्वास ही मिथ्यादर्शन की विकारी पर्याय है। इसी प्रकार वह चैतन्य सत्ता सम्यग्दर्शनादि शुद्ध पर्यायों के उत्पन्न होने पर शुद्ध नहीं होती वरन् उस शुद्ध चैतन्य सत्ता का दर्शन अर्थात् अहं ही सम्यग्दर्शन की शुद्ध पर्याय है। इस प्रकार चैतन्य सत्ता की त्रैकालिक शुद्धता एवं सर्व पर्याय-निर्पेक्षता अत्यन्त निरापद है और सर्व ही अनित्य एवं विकारी पर्यायसमुदाय उसकी ध्रुव परिधी के बाहर रह जाता है। यहाँ तक कि ध्रुव सत्ता के अहं को सम्यग्दर्शन कहा तो जाता है किन्तु सम्यग्दर्शन वास्तव में ध्रुव
SR No.007142
Book TitleChaitanya Ki Chahal Pahal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugal Jain, Nilima Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2012
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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