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________________ 33 सम्यग्दर्शन का विषय (द्वितीय) आत्म-पदार्थ की अनैकान्तिक दृष्टि सम्यग्दर्शन जैसी जीवन की महान् उपलब्धि एवं उसके विषय को हृदयंगम करने के लिए यदि हम आत्म-पदार्थ के द्रव्यपर्यायस्वरूप पर अनेकांतिक दृष्टि से विचार करें तो निर्णय बड़ा ही सरल हो जाएगा। यह निर्विवाद है कि आत्म-पदार्थ के दो अंश हैं - द्रव्य एवं पर्याय। आत्म-पदार्थ का द्रव्य अंश जिसे शुद्ध चैतन्यसत्ता, कारणपरमात्मा, परमपारिणामिकभाव भी कहते हैं; सदा पर से भिन्न, अक्षय, अनन्तशक्तिमय, पूर्ण, ध्रुव, अत्यन्त शुद्ध एवं पूर्ण निरपेक्ष है। उसमें कुछ भी करने का कभी भी अवकाश नहीं है और वह सदा ज्यों का त्यों रहता है। आत्मा के द्रव्यांश का यह स्वरूप प्रसिद्ध हो जाने पर अब उसका दूसरा अंश पर्याय शेष रह जाती है। यदि हम पर्याय की कार्य:- मर्यादा पर विचार करें तो हमारे मन में स्वाभाविक ही एक प्रश्न पैदा होगा कि द्रव्य के पूर्ण एवं शुद्ध सिद्ध हो जाने पर पर्याय को तो द्रव्य में कुछ करना ही नहीं रहा, तब फिर पर्याय का कार्य क्या होगा? तो उसका एक सरल उत्तर है कि जब आत्मा का स्वभाव ही श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, आनन्द आदि है तो उसकी पर्याय का कार्य भी नित्य विद्यमान द्रव्य की श्रद्धा, उसी का अहं, उसी की अनुभूति एवं उसी की लीनता करना रहा और पर्याय का स्वरूप भी आलम्बनशीलता ही है। वह द्रव्य की रचना नहीं करती, द्रव्य में कोई अतिशय नहीं लाती, वरन् द्रव्य जैसा है, वैसी ही उसकी प्रतीति एवं अनुभूति करती है। द्रव्य तो ज्ञान एवं अज्ञान दोनों दशाओं में ज्यों का त्यों रहता है। इस प्रकार अनेकांतिक पद्धति
SR No.007142
Book TitleChaitanya Ki Chahal Pahal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugal Jain, Nilima Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2012
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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