SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चैतन्य की चहल-पहल ' - यद्यपि अक्षय चैतन्य ही उसका एक मात्र अहं है और वह निरंतर वहीं स्थापित रहता है फिर भी क्षय के प्रति गतिमान अपने पर्याय दोषों का वह सजग प्रहरी है। चारित्रिक दौर्बल्य से प्रवर्तमान कोई दोष उसे उपेक्षित नहीं है। साथ ही वह निरन्तर दोषों से खिन्न एवं विह्वल भी नहीं है, तो सतत् उनका चिन्तन शील भी नहीं है, क्योंकि सर्व दोषनिःशेष की अद्भुत कला उसे विदित है । वह जानता है कि सतत् दोष का विचार व निरन्तर दोषों का भय दोष-मुक्ति का कोई उपाय नहीं है। उसका अत्यन्त स्पष्ट निर्णय है कि आत्मा में सर्व दोषों का जन्म एक मात्र स्वरूप - स्खलन से ही होता है। अत: स्वरूप-निष्ठा ही निर्दोष निर्वाण का एक मात्र साधन है। 12 पर्याय में व्याप्त दोष- समुदाय के साथ तत्त्वज्ञान को जीवन का एक वह पहलू भी दिखाई देता है जहाँ निरन्तर योग-वियोग आवर्तित होते रहते हैं । पापोदय की विभीषिकायें हों अथवा पुण्योदय की इन्द्रधनुषी छटायें, तत्त्वज्ञान इस रहस्य को बारीकी से जानता है कि ये सब उसकी सत्ता का स्पर्श ही नहीं करते। अत: पापोदय की भीषण हैरानी अथवा पुण्योदय का मधुर उन्माद उसकी प्रज्ञा को कभी आच्छादित करते ही नहीं हैं । जब अज्ञानी पाप एवं पुण्य का क्रीतदास होकर पदाघातों से कन्दुक की तरह दुर्दशाओं के चक्र से कभी मुक्त नहीं होता तब चैतन्य जीवी तत्त्वदृष्टा ऐसी हर परिस्थिति में संतुलित एवं समवस्थ रहता है। तत्त्वज्ञान गर्वोन्मत्त भोगमय जीवन के मृण्मय स्वरूप को खुली चुनौती है। चैतन्य के अस्तित्व में सन्देह कर जो मिट्टी के भोगों को ही जीवन का स्वरूप मानते हैं, देह एवं भोग की वियोग - चेतना से भट्टी में पड़े कीट की तरह जो निरन्तर अतिशय वेदना से तड़फते
SR No.007142
Book TitleChaitanya Ki Chahal Pahal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugal Jain, Nilima Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2012
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy