SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 74 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा कि शून्य का ध्यान करना - परन्तु भाई! किसका ध्यान करेगा? सर्वथा शून्य का तो ध्यान हो नहीं सकता; सत् का ध्यान होता है। सत् कैसा है, उसकी पहचान बिना, ध्यान नहीं होता। शुद्ध द्रव्यार्थिकनय में बन्ध-मोक्ष पर्याय नहीं दिखती, इस अपेक्षा से शुद्धदृष्टि से जीव को परिणाम से शून्य कहा है परन्तु जीव सर्वथा परिणामशून्य नहीं है, परिणामरहित नहीं है। द्रव्य और पर्याय को 'कथञ्चित् भिन्न' कहा है परन्तु कहीं सर्वथा भिन्न नहीं। द्रव्य और पर्याय के प्रकार जैसे हैं, वैसे समझकर उसमें से अपने हित का कारण कौन है, अर्थात् मोक्ष का कारण कौन है? -- उसकी यह बात है। 'सत्' कैसा है ? - उसका निर्णय करके फिर उसका ध्यान हो सकता है। जयसेनस्वामी रचित इस टीका का नाम तात्पर्यवृत्ति है। शास्त्र का तात्पर्य क्या, ज्ञान का तात्पर्य क्या, अथवा आत्मा का सारभूत स्वभाव क्या - कि जिसे लक्ष्य में लेने से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, आनन्द होता है? - ऐसे तात्पर्यरूप सारभूत आत्मस्वरूप का यह वर्णन है। यह सूक्ष्म लगे तो भी, यह मेरे आत्महित के लिए प्रयोजनभूत बात है - ऐसे लक्ष्य में लेकर, उसकी महिमा लाकर प्रयत्न करना तो अवश्य समझ में आयेगा। अरे जीव! तुझमें तो केवलज्ञान लेने की ताकत है, तो तेरा अपना स्वरूप तुझे क्यों नहीं समझ में आयेगा? एक क्षण में समझ में आता है परन्तु उसके लिए अन्तर में गहरी लगन और आत्मा की दरकार चाहिए। यह तो जिसे जन्म-मरण से आत्मा को छुड़ाना हो और सुखी होना हो, उसके लिए बात है।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy