SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 110 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा छुड़ाना है; इस प्रकार आत्मा की धगशपूर्वक समझना चाहे तो अवश्य समझ में आ सके - ऐसा स्वरूप है। - अन्तर के स्वभाव को देखने पर एकरूप गरमस्वभाव है। ऐसे निजस्वभाव के आनन्द का ध्यान करने से परमार्थदशा प्रगट होती है, वहाँ दश भावप्राणरूप अशुद्धता नहीं रहती है; इसलिए वह अशुद्धजीवत्व, शुद्धद्रव्यार्थिकनय से जीव का स्वभाव नहीं है। इसी प्रकार भव्यत्व तथा अभव्यत्व को भी अशुद्धपारणामिक कहा है। जिसे भव्यता होती है, उसे अभव्यता नहीं होती; जो अभव्य होता है, उसे भव्यता नहीं होती, परन्तु शुद्धदृष्टि में ये दोनों भेद दिखायी नहीं देते; उसमें तो एक परमभावरूप शुद्धजीवत्व ही दिखायी देता है और ऐसी शुद्धदृष्टि से अपने परमभाव को देखनेवाला जीव, भव्य ही होता है। ऐसे परमस्वभाव की समझ के बिना शुभराग करने से धर्म नहीं हो जाता। शुभराग भी संसार है; वह कहीं मोक्षमार्ग नहीं है; मोक्षमार्ग के लिए तो रागरहित वस्तुस्वरूप समझना चाहिए। धर्म का पुंज तो आत्मा है। आत्मद्रव्य क्या, उसकी पर्याय. क्या? – इसका लक्ष्य किये बिना धर्म का पक्ष भी नहीं होता और राग का पक्ष भी नहीं छूटता। राग के पक्ष का फल तो संसार है। भाई! तुझे संसार से छूटना हो और सिद्धपद साधना हो तो भेदज्ञान के द्वारा राग का पक्ष छोड़ और स्वभाव का पक्ष कर। __ शुद्धदृष्टि से पारिणामिक एक परमभाव में तीन भेद नहीं हैं। चौदह मार्गणा के भङ्ग-भेद शुद्धद्रव्य की एकता में नहीं हैं। चौदह मार्गणा सम्बन्धी व्यवहार, जैसा जैनशासन में बतलाया है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं है। जैन का व्यवहार भी अलौकिक है और
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy