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________________ 96 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा उपशम रस बरसे रे प्रभु, तेरे नयन में..... नयन में, अर्थात् अन्तर्मुख ज्ञानपर्यायरूपी चक्षु में आनन्दरस की धारा उल्लसित होती है।आत्मा, वीतरागी अकषा शान्तिस्वरूप है, उसका पहला ध्यान उपशमभावसहित होता है। उपशमभाव एक पर्याय है, वह मलिन नहीं तथा वह त्रिकाल टिकनेवाली भी नहीं है; वह एक समय का निर्मलभाव है। वह भाव, मोक्ष का कारण है। उपशमभाव, वह अपूर्वभाव है; जीव ने पूर्व में कभी वह प्रगट नहीं किया है। एक बार भी उपशमभाव प्रगट करने से : मोक्ष का दरवाजा खुल गया और वह जीव, अल्प काल में मोक्ष प्राप्त करेगा। ___कषायों से उपयोग को पृथक् करके, शान्तस्वरूप होकर चैतन्यघन आत्मा को पहली बार अनुभव में लिया तब, अर्थात् अपूर्व सम्यक्त्व प्रगट हुआ तब, उपशमभावं ही होता है, यह नियम है (यह श्रद्धा के नियम की बात है, ज्ञान तो उस समय सम्यक् क्षयोपशमभाववाला होता है) सम्यक्त्वपूर्वक जो क्षयोपशमभाव हुआ, वह मोक्षमार्ग में है; मिथ्यात्वसहित का जो क्षयोपशमभाव अनादि से समस्त जीवों को है, उसकी यहाँ बात नहीं है क्योंकि वह मोक्ष का कारण नहीं है; यहाँ तो मोक्ष के कारणरूप भाव की बात है। मोक्ष के साधक जीवों को उपशम-क्षयोपशम-क्षायिकरूप निर्मलपर्यायें हुए बिना नहीं रहतीं। त्रिकाली द्रव्यरूप पारिणामिकभाव और पर्याय में चार प्रकार के भाव, ये सब भाव जीवतत्त्व के हैं। उनमें से एक भी प्रकार को सर्वथा निकाल देने से जीवतत्त्व का प्रमाणभूत स्वरूप लक्ष्य में नहीं आता। जीव के पाँच भावरूप
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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