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________________ चिद्काय की आराधना/95 ‘परम स्वास्थ्य स्वरूपोऽहम्' जन्म-मरण अरु जरा रोग से, रहितावस्था निरोग समझो। पथिक! न भटको इधर-उधर, अब निज शुद्धात्म को भजो।। परम स्वास्थ्य की प्राप्ति जीवो का प्रयोजन है। कहा भी है 'पहला सुख निरोगी काया।' अविनाशी स्वरूप लीनता करने से जीवो को परम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। 'स्वस्थित इति स्वास्थ्य।' अपनी चिद्काय में स्थिति स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य निर्दोष सुख का लक्षण है। निर्दोष सुख निज चिद्काय में स्थित होने से प्राप्त होता ____ बहिर्मुखता से रागादि दोषों की उत्पत्ति होती है। रागादि दोषों से कर्म का बंध होता है। कर्मोदय से रोगों की उत्पत्ति होती है, रोगों से स्वास्थ्य की हानि होती है, जीव दुःखी होता है। सिद्ध परमात्मा अशरीरी होने से जन्म, मरण, जरा रोग आदि से अत्यन्त मुक्त हो चुके हैं। इसलिये वे परम निरोगरूप परम स्वास्थ्य को प्राप्त हैं। हे भाई! तेरा आत्मा भी निश्चय से जन्म, मरण, जरा, रोग आदि से अत्यन्त रहित परम स्वास्थ्य स्वरूप है। अतः अब उस परम स्वास्थ्य की व्यक्ति के लिए तुम अपनी चिद्काय की आराधना करो। अब मैं निज चिद्काया में लीनता करता हुआ परम स्वास्थ्य में स्थित होता हूँ। स्वास्थ्य प्राप्त करने के लिये बाहर कुछ नहीं करना है। मात्र निज चिद्काय में स्थित होकर उसका परिमार्जन करना है, कर्ममल को उससे पृथक् करना है। रोग पुद्गल काय का आश्रय कर होते हैं। कर्ममल पृथक् होने पर शरीर की उत्पत्ति नहीं होती है, इसलिये रोगों की उत्पत्ति होने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता और आत्मा परम स्वास्थ्य रूप ही सदा परिणमन करता है।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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