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________________ चिद्काय की आराधना/91 'परम मंगल स्वरूपोऽहम्' मंगल मय मम आत्मा, सर्व मलों से दूर। भक्ति भाव से नित जजै, होय कर्ममल चूर।। निज प्रदेशों और गुणों की अपेक्षा मैं परम मंगलस्वरूप हूँ। चत्तारि मंगलं। अरहंता मंगलं। सिद्धा मंगलं। साहू मंगलं। केवली. पण्णत्तो धम्मो मंगलं। व्यवहार से चार मंगल हैं। अरहंत भगवान परम मंगल हैं, अष्ट कर्मों से रहित सिद्ध भगवान परम मंगल हैं तथा रत्नत्रय के आराधक षष्ठम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थानवर्ती सर्व साधु परम मंगल हैं और केवली भगवान द्वारा प्रणीत धर्म मंगल है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के भेद से मंगल तीन प्रकार का है। ... निश्चय से एक जीव मंगल है। द्रव्यार्थिक नय से मंगल पर्याय परिणत जीव मंगल है और पर्यायाथिक नय से केवलज्ञानादिशुद्ध पर्यायें मंगल हैं। जो ज्ञानावरणादि द्रव्यमल और रागादि भाव मल को गलाता है, वह मंगल कहलाता है। जो पाप को गलाता है और सुख को लाता है, वह मंगल कहलाता ___ हे भव्य! निश्चय से तेरी चिद्काय परम मंगल स्वरूप है। तेरा शरीर भी तेरी चिद्काय का आधारभूत होने से व्यवहार से नोआगमद्रव्य मंगल है। तेरी चिद्काय द्रव्य, भाव कर्म मल का नाश करने वाली और अतीन्द्रिय आनन्द को लाने वाली है। हे भव्य! तू मंगलस्वरूप अपनी देह प्रमाण चिद्काय की आराधना कर। सम्यग्दृष्टि विचार करता है , परकाय नहीं चाहता, चाहूँ निज चिद्काय। निज चिद्काय में लीन हो मेदूंसकल विभाव।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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