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________________ चिद्काय की आराधना/89 'समयसार स्वरूपोऽहम्' ओपथिक! जाग अब बाहर ना भटकना। सारे विकल्प तज अपने में अटकना।। भीतर छिपा अमृत घट का है जो प्याला। .. पीता वही जो मदमस्त निजात्म वाला।। जिसप्रकार अरिहंत-सिद्ध परमेष्ठी समयसार स्वरूप हैं, उसीप्रकार मैं भी स्वभाव से समयसार स्वरूप हूँ। .. हे भव्य! तुम स्वयं भी समयसार स्वरूप हो। अपने समयसार स्वरूप को पर्याय में उपलब्ध करने के लिए मोह, मद, कषाय, राग, द्वेष, सर्व दोषों का त्याग करो। तुम्हारा समयसार प्राप्त देह के भीतर देह प्रमाण है, वह स्वसंवेदन से तुम्हारे अनुभव में आ रहा है, उसकी प्रतीति नहीं होने से उपयोग चिद्काय से बाहर जाने से पर्याय में मलिनता होती है और निरंतर कमों का आस्रव और बंध होता रहता है। हे भव्य! अन्तर्दृष्टि कर अपने भगवान को देखने का पुरुषार्थ करो। · जो लोग नयों के विकल्पों को छोड़कर सदा अपने स्वरूप में, चिद्काय में लीन रहते हैं, वे सभी प्रकार के विकल्प जाल से रहित शांत चित्त वाले होते हैं, वे ही साक्षात् अमृत का, समयसार का पान करते हैं। वे ही ज्ञानी पुरुष हैं। अहंत व सिद्ध भगवान की आत्मा ज्ञानादि आठ मदों से रहित है, ममता परिणाम से रहित है, क्षुधादि अठारह दोषों से रहित है। क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषायों तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तीन वेद इन नोकषायों से रहित है, अत्यंत विशुद्ध प्रशांत मूर्ति है, इसलिये उनकी आत्मा शुद्ध कहलाती है। वही समय है और विशुद्ध आत्मा के रत्नत्रय अनन्त चतुष्टयादि गुण उस शुद्ध आत्मा का सार है; ऐसे समयसार को मेरा त्रिकाल नमस्कार है, इसकी मुझे शीघ्र उपलब्धि हो। .
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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