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________________ चिद्काय की आराधना/79 'निजानन्दस्वरूपोऽहम्' तेरा आनन्द तुझ में चेतन, क्यों बाहर में खोजता। निज की गुण-पर्याय तज कर, क्यों परम सुख मानता।। अपने गुण की छाँह पकड़ ले, पथिक कहीं ना जाना रे। पर परिणति पर्यायें तज कर, निज में निज को भजना रे।। हे आत्मा! इन्द्रियजन्य विषय का आनन्द आनन्द नहीं, आनन्दाभास है। वास्तविक आनन्द शक्तिरूप से परमात्म स्वरूप तुम्हारी चिद्काय में शाश्वत विराजमान है। तुम उस आनन्द के स्वामी हो, तद्प हो। इसलिये अपनी चिद्काय में उपयोग जोड़कर उसकी प्राप्ति करो। बाहर मत भटको। 'तेरा आनन्द तुझ में, ज्यों पहुपन में वास।' __ हे भव्य! आनन्द को बाहर कहाँ खोज रहे हो? स्त्री के प्रेम में, माँ के वात्सल्य में, पुत्र के राग में अथवा पिता के दुलार में! भाई! तू एक बार निज जीवास्तिकाय को अंतर्दृष्टि करके देख। . __ भगवान कहते हैं कि तू आनन्द का सागर है, अतीन्द्रिय आनन्द का दरिया है, परमानन्दस्वरूप है, अनन्त-अनन्त गुणों का भंडार है, सिद्ध समान शुद्ध है, तेरी चिद्काय ही अमृत का सागर है। तू ही परमात्मा है। एक बार अन्दर में अपने प्रभु को देख। तू प्राप्त देह में ही गुप्त है। तू ध्यान मुद्रा में बैठकर नेत्र बंद करके अन्तर्दृष्टि करके स्वसंवेदन से अपनी चिद्काया का अनुभव करेगा तो तेरे संसार का नाश अवश्य होगा। प्रमाद छोड़कर अपने उपयोग को अपनी दिव्य काय के अवयवों में लीन कर, तू शीघ्र ही परमात्मा बन जावेगा। जैसे जन्मांध पुरुष सूर्य को नहीं देखता है, उसीप्रकार देह के भीतर स्थित आनन्दमयी चिद्देह को ध्यानहीन पुरुष नहीं देखते हैं। किन्तु ध्यान करने वाले पुरुष नियम से सभी दुःखों से छूट जाते हैं और परमात्म तत्त्व को प्राप्त करके अल्प काल में ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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