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________________ चिद्काय की आराधना/71 'शुद्ध चिन्मात्र स्वरूपोऽहम्' चिदानन्द चैतन्य पति, शुद्धातम सुखकार। पर परिणति से भिन्न है, चिद्काय अविकार।। हे भव्य! देहाकार तुम्हारी चिद्काय ही चैतन्य आत्मा है। वही तुम्हारा वास्तविक परमात्मा है। इस चैतन्य आत्मा को निश्चय से प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग बंध नहीं, मोक्ष भी नहीं हैं। गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवस्थान, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा इसमें नहीं हैं। रागादि विभाव परिणाम, अध्यवसान स्थान भी इसमें नहीं हैं। रोग, शोक, उपाधि, आधि, व्याधि भी स्वरूप में नहीं हैं। आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान भी आत्मा का स्वरूप नहीं है। मैं सर्व परद्रव्य, परभावों से भिन्न, अनन्त शक्ति का धारक, आनन्द मूर्ति शुद्ध चिन्मात्र जीवास्तिकाय मात्र हूँ। . हे भव्य जीवों! यदि तुम आत्मकल्याण करना चाहते हो तो स्वतः शुद्ध और सर्व प्रकार से परिपूर्ण आत्मस्वभाव अर्थात् अपनी ही चिद्काय, जो देह . प्रमाण है, इसी देह में ही गुप्त रूप है, दूध पानी की तरह मिली हुई है; उसका ध्यान मुद्रा में बैठकर आँखें बन्द करके अनुभव करने का अभ्यास करो; उसी की रुचि, उसी का विश्वास करो, उसी का लक्ष्य और आश्रय करो। इसके अतिरिक्त अन्य समस्त संकल्प-विकल्पों का त्याग करो। यदि ऐसा प्रयत्न नहीं किया तथा पर लक्ष्य में ही जीवन व्यतीत कर दिया तो आकुलता के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी मिलने वाला नहीं है। ध्यान के द्वारा कर्म नष्ट नहीं करने पर निज चिद्काय के साथ कार्मण देह और तैजस देह साथ जाती हैं, जिससे संसार अनवरत रूप से चलता रहता है। हे आत्मन् । तू अव्यक्त प्रभु है। तू अपनी चिद्काय को भूला हुआ है। अंतर्दृष्टि कर अपनी चिद्काय का अनुभव कर, जिससे तू प्रगट प्रभु होगा।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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