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________________ चिकाय की आराधना / 61 ‘चैतन्यामृताहार स्वरूपोऽहम्' ज्ञानामृत का प्याला पीता, मेरा आतमा घड़ी-घड़ी । है आहार ही सतत मेरा, छोडूं इस को न एक घड़ी । । पथिक! न भटकूँ इधर-उधर अब, सत्य ज्ञान की लगी लड़ी। मुक्ति वधु से नाता जोडूं, मोक्ष महल से जुड़ी कड़ी || निश्चय से मैं शुद्ध चैतन्य अमृत आहार स्वरूप हूँ। पर द्रव्यों के संयोग से रहित मेरा चित्कायामृत ही मेरा आहार है । मेरा आत्मा चित्कायामृत के सेवन से ही तृप्त होता है। उसे पुद्गल आहार से कोई प्रयोजन नहीं। मैं सतत चित्कायामृत का पान करते हुए बाह्य छह प्रकार के आहार को छोड़ता हूँ। बाह्य आहार के छह भेद हैं- नोकर्म आहार, कर्म आहार, लेप आहार, कवला आहार, ओज आहार और मानसिक आहार । शुद्ध चैतन्य आत्मा का इनमें से कोई आहार नहीं । अतः वह निराहार है। शुद्ध आत्मा कभी आहार नहीं करता, यदि करता तो सिद्ध भगवान को भी आहार होना चाहिए, जो कि असम्भव है। जैसे हल्दी और चूने के संयोग से एक नई अवस्था उत्पन्न हो जाती है, वैसे ही जीव और पुद्गल के संयोग से एक तीसरी मनुष्यादि अवस्था होती है, तब जीव पुद्गलं आहार का ग्रहण करता है। अंतर्दृष्टि से निर्ज चिकाय की आराधना करने पर जीव को पुद्गल का संयोग मिटता है और फिर पुद्गल का आहार नहीं होता है। आहार करना क्षुधा निवृत्ति एवं सुख प्राप्ति का यथार्थ उपाय नहीं है। निज जीवकाय का ध्यान ही क्षुधा निवृत्ति एवं सुख प्राप्ति का यथार्थ एवं स्थायी ́ उपाय है, क्योंकि निज जीवकाय के ध्यान से क्षुधा उत्पन्न करने वाला असातावेदनीय कर्म निर्जरित होता है। योगी निज जीवकाय के ध्यानरूपी अन्नजल से सन्तुष्ट रहते हैं। वे अन्न-जल से शरीर को पुष्ट नहीं करते हैं। जो शरीर पुष्ट करने में आसक्त हो जाते हैं, वे ध्यान का साधन नहीं कर सकते हैं।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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