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________________ 58/चिद्काय की आराधना . 'चिन्मात्र मूर्ति स्वरूपोऽहम्' . द्रव्यकर्म अरु भाव कर्म, अरु नोकर्मों से भिन्ना। शुद्ध बुद्ध चिन्मात्र ये मूरत, लिपटी कर्मरज लिन्ना।। भेद विज्ञान की टाँची ले, कर्म मल को निकालो। शुद्ध चिदानन्द चैतन्य मूरत, के तुम दर्शन पा लो।। हे शुद्ध चिदात्मराजा! मैं निरन्तर तेरी आराधना करता हूँ। निज चिद्काय के आश्रय से मेरी अनुभव रूप परिणति की परम विशुद्धि हो, कर्म कलंक से रहित उत्कृष्ट विशुद्धि हो। ___ मैं भेदविज्ञान रूपी छैनी से भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म को त्यागता हुआ . शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति, जीवास्तिकाय का दर्शन करता हूँ, उसी में नित्य विहार करता हूँ। उसी में मैं नित्य केली करता हूँ। बाह्य पुद्गल मुर्तियों में मेरा अनुराग समाप्त हो गया है। मेरा शुद्ध चैतन्य आत्मा भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से रहित एक टंकोत्कीर्ण चिन्मात्र मूर्ति स्वरूप है। मेरी चिन्मात्र मूर्ति मेरे ही द्वारा स्वसंवेदनगम्य है। मेरी चिन्मात्र मूर्ति निश्चय से लोक प्रमाण होने पर भी व्यवहार से प्राप्त देह प्रमाण है। वह न अणु प्रमाण है और न सर्वव्यापी है। केवलज्ञान द्वारा सर्व को प्रकाशित करने से आत्मा को लोकव्यापी कहा जाता है। . जिसप्रकार एक मूर्तिकार पाषाण में मूर्ति का दर्शन कर उसमें से मूर्ति निकालता है; वह हथौड़ा, टाँकी आदि लेकर पाषाण के अनुपयोगी अंश को निकालता चला जाता है। इसीप्रकार वीतराग चैतन्य मूर्ति का जिसने एक बार दर्शन कर लिया है, वह बार-बार अपनी चिन्मात्र मूर्ति चिद्काय, जो भगवान है, उसका दर्शन करता है और कर्म निर्जरा करता जाता है। ___पर परिणति का कारण जो मोहनीय कर्म है, उसके उदय रूप विपाक से मेरी परिणति निरन्तर मलिन हो रही है। मेरी परिणति बाहर परद्रव्यों में जाती है, इसलिये मलिन हो जाती है। परन्तु मैं द्रव्यदृष्टि से सदा कर्म कलंक से रहित शुद्ध चैतन्य मात्र मूर्ति हूँ।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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