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________________ 0 चिदूकाय की आराधना / 53 'माया शल्य रहितोऽहम्' भोग बुरे भव रोग बढ़ावें, वैरी हैं जग जीके | बेरस होय विपाक समय अति, सेवत लागे नीके ॥ निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न परम आनन्दामृतरस रूपी निर्मल जल से अपने चित्त की शुद्धि न करता हुआ यह जीव बाहर में बंगुले जैसे वेष को धारण कर लोगों को प्रसन्न करता है, यह माया शल्य है। हे भव्य ! मायाचार करके तूने अपने को ही ठगा है। तूने पूर्व में अनादिकाल से मायारूप परिणामों को करते हुए अपना संसार को बढ़ाया है। तेरा चैतन्य प्रभु, त्रैकालिक सच्चिदानन्द चैतन्य मूर्ति इन विभावों से सर्वथा रहित है। पर्यायार्थिक नय से कर्मोदय के संयोग से उत्पन्न विभाव परिणाम जीव के कहलाते हैं। 0 भव्यात्मन! तू एक है, अखंड है, वीतराग है । तेरी चिकाय की प्राप्ति ही तेरे जीवन का लक्ष्य है। बाह्य प्रपंचों से कोई लाभ नहीं है। मोक्ष का पथिक प्रार्थना करता है कि मुझे एक मात्र मेरे भीतर विराजमान परमात्मा प्राप्त हो, निज चिकाय ही मुझे प्राप्त हो । आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम् ।। विलीनसंकल्पविकल्पजालंप्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ।। निज प्रदेशों और गुणो की अपेक्षा मेरा आत्मस्वभाव विभाव भावों तथा चेतन-अचेतनादि परद्रव्यों से भिन्न है। आत्मस्वभाव दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य आदि गुणों से परिपूर्ण है। अपनी चिकाय को न किसी ने उत्पन्न किया है और न कोई इसका नाश ही करने वाला है। यह आदि - अंत से रहित है और सर्व भेदों से रहित एकाकार रूप है। नेत्र बंद कर अंतर्दृष्टि करने से वीतराग स्वाभाविक सहजानन्द मय शुद्ध निज जीवास्तिकाय प्रतिभासित होती है और जीव मुक्ति की ओर गमन करता है।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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