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________________ 48/चिद्काय की आराधना ___ 'वचन क्रिया रहितोऽहम्' जैसे सिद्ध भगवान वचन क्रिया से रहित हैं, उसी प्रकार निश्चय से मेरा आत्मा वचन क्रिया से रहित है। मौनस्वरूपोऽहम्। निश्चय से मैं मौनस्वरूप हूँ। हे आत्मन्! आज तक विविध सांसारिक वार्तालाप में लगे रहे। दिन भर. बोलते-बोलते भी शांति न मिली। स्वप्न में भी अन्तरंग वचनालाप करते रहे। जो निरंतर इस प्रकार अन्तरंग-बहिरंग वचनालाप में लगा रहता है, उसे अपने देह-देवालय में स्थित अपने परमात्मा का दर्शन नहीं होता है। बाह्य और अंतरंग वचनालापों को छोड़ कर अंतर्दृष्टि की जाये तो परमानन्दमयी निज शुद्धात्मा का, परमात्मा का दर्शन होता है। समयसार कलश में कहा है-------- ‘भैया! छह माह तक मौन रहकर निज चैतन्य प्रभु, चिद्काय के . दर्शन का अभ्यास करो।' अंतर्जल्प और बहिर्जल्प आत्मा के अशुद्ध प्राण हैं। इनका त्याग मौन है। मौन रहने से मन की चंचलता मिटती है। बोलने का आशय होने पर जीव नहीं बोलते हुए भी मन से बोलता रहता है। इसलिये बोलने का आशय छोड़ना चाहिए। निज चित्काय स्वसंवेदनगम्य है, उसी को परमार्थ सुख का कारणपना है। इसलिये सदा मौन रह कर और नेत्रों को बन्द कर निज चित्काय का अनुभव . करना चाहिए। उपदेश देने की बजाय उपदेश को आचरण में लेने का प्रयत्न करना चाहिए। इसलिये तीर्थंकर मुनि बनते समय मौन व्रत लेते हैं। एक स्वार्थ की सिद्धि के लिये सदा मौन रहना चाहिए। किन्तु यदि कोई ऐसा परार्थ हो जो केवल अपने द्वारा ही साध्य हो तो स्वार्थ का घात नहीं करते हुए ही बोलना चाहिए।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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