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________________ 44/चिद्काय की आराधना 'घ्राणेन्द्रिय विषय व्यापार रहितोऽहम्' तेरा सांई तुझ में, ज्यों पहुपन में वास। कस्तूरी को मिरग ज्यों, फिर-फिर ढूँढे घास।। स्वात्मानन्द या आत्मविशुद्धि से बढ़कर कोई सुगन्ध नहीं तथा परिणामों की मलिनता से बढ़कर कोई दुर्गन्ध नहीं। हे आत्मन्! अपनी दिव्य काय की प्यारी-प्यारी, भीनी-भीनी सुगंध का रसास्वादन करो और पुद्गलों की गंध का त्याग करो। गंध में सुख नहीं होता, इसलिये गंध को विषय करने वाले को भी सुख नहीं होता। निज दिव्य काय में सुख गुण होने से उसको विषय करने वाले को भी सुख होता है। ___ हे सद्बोधैं परांगमुख मूढ़ मानव! अपने शरीर में विद्यमान भगवान सिद्ध के गुणों की सुगन्ध का आश्रय ले। यदि ऐसा नहीं करेगा तो ध्यान रख, तुझे संसार की दुर्गंधमयी गलियों में भटकना पड़ेगा और तुम मुों के शिरोमणि कहलाओगे। अधिक क्या कहें, अगली पर्याय में नपुंसक हो जाओगे। आत्मा स्वभाव से सुगन्ध-दुर्गन्ध को विषय करने से रहित है। आत्मा निज चिद्काय की आराधना करने के स्वभाव वाला है। . घ्राण इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करने के लिये नेत्र बन्द कर अपने उपयोग को घ्राण इन्द्रिय पर लगायें। हे भाई! एक आत्मानुभव ही कला को सीख ले। आत्मानुभव का ऐसा माहात्म्य है कि दो घड़ी अपनी चैतन्य काया में लीन हो जावे तो सब कर्मों का नाश करके केवलज्ञान प्रकट करे, मोक्ष दशा हो। इसलिये आँखें बन्द करके ध्यान मुद्रा में बैठकर अपने उपयोग को नासाग्र पर लगाकर अभ्यन्तर में देखते रहो। अपनी चिद्काय के अंग-उपांगों को स्वसंवेदनरूप देखने से ही जीव को सुख का अनुभव होता है और वह अल्पकाल में अशरीरी होता है।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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