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________________ . चिद्काय की आराधना/39 'माया कषाय रहितोऽहम्' माया ठगनी ने ठगा, यह सारा संसार। जिसने माया को ठगा, उसकी जय-जयकार।। मन में कुछ हो, वचन में कुछ हो और काया से कुछ और ही करना, यह मायाचार है। दूसरों को ठगना माया कषाय है। आज तक तुम यही सोच रहे हो कि मैं कितना कलाकार चतुर हूँ, मैंने अच्छे-अच्छे सेठ साहूकार, मित्रव्यापारियों को ठग लिया है, मेरा जैसा बुद्धिमान कौन इस दुनिया में होगा। हे पथिक! यह तुम्हारी भूल है। सच तो यह है कि वास्तव में आज तक तुमने औरों को नहीं, अपितु अपने आपको ही ठगा है। तुम सिद्ध सम शुद्ध परमात्मा अनन्त शक्ति के पुंज होकर भी क्षणिक सुखाभास के लिये भिखारी बन छल-कपट करते हो। तुम निश्चय से अपनी बहिर्मुखता से और व्यवहार से 148 कर्म शत्रुओं से ठगाये गये संसार रूप जेल में पड़े हो। विचार करो कि तुम दूसरों को ठगने वाले स्वयं ठगाये गये हो। हे आत्मन्! मायाचार आत्मा का स्वभाव नहीं, विभाव है। त्रैकालिक शुद्ध आत्मा इन विभाव भावों से रहित है। उस शुद्ध स्वभाव को व्यक्त करने का पुरुषार्थ करो। मन-वचन-काय की सरलता रखो। सन्तों का उपदेश है कि हे जीवों! यदि तुम इस दुःखमय संसार-समुद्र से पार होना चाहते हो तो अन्य सर्व कलाओं की महिमा छोड़कर एक निज चिद्काय के अनुभव की कला की महिमा ग्रहण करो और उस कला को सीख लो और उसका ही नित्य अभ्यास करो। इस कला के अभ्यास के बिना संसार का अंत नहीं आयेगा। इस अनुभव की कला के समक्ष अन्य सर्वप्रकार की कलाएँ व्यर्थ हैं। हजारों शास्त्रों की पढ़ाई से भी एक क्षण के अनुभव का मूल्य अधिक है। हे भाई! माया कषाय रहित अपनी चिद्काय का आश्रय कर माया कषाय का अभाव करो।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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