SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 32/चिकाय की आराधना और मोक्ष होता है । बहिर्मुख उपयोग निज चिकाय से च्युत होने के कारण अचेतन समान होता है और निज चिकाय भी उपयोग का समवाय नहीं रहने से अचेतन समान होती है। जिनका चित्त बाह्य पदार्थों में ही स्फुरायमान रहता है, वे मिथ्यादृष्टि हैं। मन- इन्द्रिय द्वार से मोहकर्म का उदय होता है, जिससे रागादि की उत्पत्ति होकर नवीन कर्मों का बन्ध होता है। नाम कर्म के उदय से पुद्गलों की शरीराकार रचना होती है, उसको बाह्य शरीर कहते हैं। बालगोपाल सबको अपना आभ्यंतर शरीर, भगवान आत्मा सदा स्वयं से ही अनुभव में आता है, किन्तु ज्ञेयलुब्ध होने से ही वे उसका अनुभव नहीं करते। बाह्य शरीर देवालय है, मन्दिर है, आभ्यन्तर शरीर देव है, परमात्मा है। आभ्यन्तर शरीर एक पारमार्थिक वस्तु है, कारण परमात्मा होने से ध्येय है, उसका ध्यान मोक्ष का कारण है। आत्मप्रदेशों के प्रचय को आभ्यंतर शरीर कहते हैं। वही हमारा स्वरूप है। देह प्रमाण निज असंख्य आत्मप्रदेश ही हमारा वास्तविक धन है। ज्ञानीजन अपने उपयोग को बाह्य पदार्थों से हटाकर उसी में लगाते हैं। वे सदा निज दिव्य काय में ही विहार करते हैं। बाह्य शरीरादि पुद्गल कायें संसार के हेतु होने से हेय हैं। उनके जानने में अपने उपयोग को लगाना संसार का कारण है। कहा रच्यो पर पद में न तेरो पद यहे क्यों दुख सहै । अब 'दौल' होउ सुखी स्वपद रचि दाव मत चूकौ यहै ।। हे जीव ! पर पदार्थों में क्यों आसक्त हो रहा है? ये तेरे पदार्थ नहीं हैं। पर पदार्थों में आसक्ति कर तू दुःख किसलिये सहन करता है? अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्यमयी तेरा स्वरूप है, उसमें लीनता करना चाहिये। ऐसा करने से ही उत्तम मोक्ष सुख प्राप्त होगा। इसलिये हे जीव! अब आत्मस्वरूप की प्राप्ति कर । निज जीवास्तिकाय को अनुभव से पहिचान। उसी में अपने उपयोग को लगाकर
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy