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________________ 26/चिद्काय की आराधना नाश करने का एक ही उपाय है कि सब तरह के संकल्प-विकल्पों को दूर कर निर्विकल्प होकर भगवान की तरह ध्यान मुद्रा में बैठकर अपने जीवास्तिकाय में ही नित्य विहार करने का अभ्यास करें। यही भगवान बनने का उपाय है। अन्य जानना, देखना, करना भोगना, विचार करना आदि जो जीवो को प्रसिद्ध है, वे सर्व ही कार्य घोर संसार के मूल हैं। हे जीवो! देव किसी मंदिर में नहीं है, न देव किसी पाषाण में लेप या चित्र में है। देव शरीर रूपी देवालय में विराजमान है, उसका साक्षात्कार करो। देवालय में देव को देखने से शुभराग होता है, परन्तु देहरूपी देवालय में निज देव को देखने से वीतरागता होती है। शुभोपयोग में चैतन्य मूर्ति आत्मा दिखाई नहीं देता। अपनी चैतन्य मूर्ति का अवलोकन आँखें बन्द करके अंतर में देखने से ही होता है। यदि स्वभाव में जिनेन्द्रपना नहीं हो तो पर्याय में जिनेन्द्रपना कहाँ से आयेगा? इसलिये यह निश्चित है कि आत्मा स्वयं स्वभाव से जिनेन्द्र है। स्वभाव से हम में और जिनेन्द्र में कुछ भी अन्तर नहीं है। दिगम्बर संतों ने यह रहस्य बताया है। इस रहस्य को धारण करने वाले कोई विरले ही जीव हैं। यह जीव पामर हो गया है जो ऐसा मानता है कि मेरा कार्य धन, घर, स्त्री, पुत्रादि के बिना नहीं चलता है। __ ज्ञानी देह-देवालय में आत्मा को देखता है। अज्ञानी जीव भगवान की मूर्ति में ही भगवान मानता है। स्थापना निक्षेप में ही वास्तविक भगवान मान लेना भ्रम है। जो कोई देह-देवालय में भगवान आत्मा का दर्शन करता है, अपने उपयोग को अपनी ही दिव्य चैतन्य काया में जोड़ता है, वह सम्यग्दृष्टि है। जिन मंदिर में विराजमान भगवान हमारे उपकारी हैं, इसलिए पूजने लायक हैं, ऐसा हम माने तो कोई दोष नहीं। ज्ञानी ऐसा मानकर भगवान के दर्शन-पूजन करता है, जिससे पुण्य होता है, किन्तु धर्म नहीं। ____ समयसार कलश 138 में श्री गुरु संसारी भव्य जीवों को सम्बोधन करते
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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