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________________ चिद्काय की आराधना/11 की जो देह दिख रही है, उसी में तेरी आभ्यतर काय तुझे स्वसंवेदन से अनुभव में आती है, वही तू है। अनन्तकाल से आज तक इधर अपने रूप की ओर झाँका ही नहीं। तुझे अपने घर का ही पता नहीं है। तू बावला होकर पर घरों में फिर रहा है। तेरे घर का पता अहंत परमात्मा बता रहे हैं कि मेरे पास जब आया है तो मुझे देखकर मेरी तरह ही ध्यान मुद्रा में बैठकर अन्दर में देख और अपने घर की सम्हाल कर। क्यों पर घरों को अपना घर मानकर दुःखी हुआ संसार में भ्रमण कर रहा है? अब तो अपने घर में आ जा। जैसे जल की धारा बहती हो, वैसे धर्म की धारा बह रही है। पीना आता हो तो पीले। जैसे पानी पीने से तृषा शांत होती है, आहार करने से क्षुधा मिटती है, औषधि लेने से रोग मिटता है, इसीप्रकार निज चिद्काय का सेवन करने से संसार मिटता है। ___ बहिर्दृष्टि करने से जीव बाह्य वस्तुओं के प्रति राग-द्वेष-मोह करता है। अंतर्दृष्टि करने पर उसे अपने ही आत्मा का, अपने ही दिव्य आभ्यन्तर शरीर का, अपने स्वरूप की रुचि होती है, विश्वास आता है कि मैं स्वयं ही आनन्द स्वरूप भगवान आत्मा हूँ, मैं स्वयं ही परमात्मस्वरूप हूँ। अपनी चिद्काय की रुचि उसको पुनः पुनः अन्तर्मुख कर मोक्ष में ले जाती है। जिसे आत्मा की यथार्थ रुचि हो, उसे चौबीस घंटे उसी का चिंतन, मनन और अन्दर में खटका बना रहता है। नींद में भी उसी का रटन चलता रहता है। अरे! सम्यग्दृष्टि नरक की भीषण वेदना में भी अन्तर में उतर जाता है। स्वर्ग की अनुकूलता में भी पड़ा हो तो भी अनुकूलता का लक्ष्य छोड़कर अन्तर में उतर जाता है। मगर यहाँ तो किंचित् प्रतिकूलता होने पर भी अरे! मुझे तो यह कठिनाई है, यह मुसीबत है, ऐसा कर-कर के काल गँवा देता है। जरा सी अनुकूलता होने पर उसमें मग्न हो जाता है। जो बीत गया, सो बीत गया, अब तो बाहर का मोह छोड़कर अंतर में उतर जा, नहीं तो बहुत पछताना पड़ेगा। ऐसे अमूल्य नरभव को विषयों में मत गँवा। . सर्व सिद्धांत का सार यही है कि बहिर्मुखता छोड़कर अन्तर्मुखता कर ध्यान का निरंतर अभ्यास करो। अन्तर्मुख रहने का नाम ही ध्यान है। समस्त संकल्प
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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