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________________ चिद्काय की आराधना/9 .. अन्दर में भगवान आत्मा आनन्दस्वरूप महा प्रतापवंत त्रिकाल विराज रहा है। उसकी दृष्टि करनां सम्यग्दर्शन है, जो धर्म की पहली सीढ़ी है। जिस प्रकार अन्धा पुरुष सूर्य को नहीं देख सकता, उसीप्रकार प्राप्त देह में भगवान सच्चिदानन्द प्रभु विराजता है, उसे ध्यान रहित पुरुष नहीं देख सकता है। इन्द्रिय सुख की रुचि वाले को चैतन्य चमत्काररूप प्रभु आत्मा नहीं दिखता। उसका आत्मा कर्मों के द्वारा ढका हुआ है। . प्रमाद छोड़कर निरंतर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। अपने उपयोग को अपनी आभ्यंतर काय जो अपना भगवान आत्मा है, पूर्ण आनन्द का नाथ है, उसके सन्मुख करने का बारम्बार प्रयत्न करना चाहिए। भगवान की वाणी में यही आया है कि द्रव्यदृष्टि से तुम स्वयं भगवान हो। आत्मा, शुद्धात्मा, चिदानन्द प्रभु तुम्हारे ही देह में मौजूद है, जो तुम स्वयं हो। जब-देह में ही देह प्रमाण शुद्धात्मा का निवास है तो तुम उसको बाहर तीर्थों में, मन्दिरों में कहाँ खोज रहे हो? मंदिरों में, तीर्थों में जो भगवान की प्रतिमा है, वह तुम्हारा भगवान नहीं हैं। तुम्हारा भगवान तो तुम्हारे ही देह में विराजमान तुम्हारी आभ्यंतर काया है जो अंतर्दृष्टि करने पर स्वसंवेदन से सदा तुम्हारे अनुभव में आती है। उपयोग का बाहर जाना ही दुरुपयोग है। जब तक उपयोग बाहर जायेगा, तब तक बहिरात्मपना रहेगा। उपयोग को चैतन्य काया में लगाने का नाम ही उपयोग का सदुपयोग करना है, शुद्धोपयोग करना है, उससे ही कर्मों का नाश होता है अन्य कोई उपाय तीन लोक में नहीं है। अहा ! मैं ही शक्तिरूप से सदा तीर्थंकर हूँ, जिनवर हूँ, मुझमें ही जिनवर बनने के बीज विद्यमान हैं। अपनी चिद्काय का अनुभव करने, ध्यान करने का इतना उल्लास आना चाहिए कि मानो परमात्मा से मिलने जा रहे हों। हमारा परमात्मा हमें बुला रहा है कि आओ, आओ! अपने चैतन्यधाम में आओ। निज चिद्तन में मात्र आनन्द ही आनन्द भरा है। इसलिये हमें उसकी महिमा, माहात्म्य, उल्लास, उमंग आनी चाहिए।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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