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________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/६ कर्म-प्रकृतियाँ मूल वसु, ये ही भवतरु मूल। इक शत अड़तालीस हैं, उत्तर प्रकृति जु शूल ॥ चार घातिया नाशते, हो जाते अरहंत । चार अघाति विनाशते, होते सिद्ध महन्त ॥ अष्टकर्म को नाश कर, हुए सिद्ध भगवन्त। त्रिलोकाग्र के शीर्ष पर, सदा सतत जयवन्त॥ (वीरछन्द) मूल वृक्ष का कर्म वृक्ष है जिसमें चार घाति दृढ़ मूल। संग बंध करता अघातिया भी जो है निज के प्रतिकूल ॥ इन्हें नष्ट करने का श्रम ही सर्वोत्तम श्रम कहलाता। केवल निश्चय श्रमण साधु ही इन्हें नष् है कर पाता। पहले घातिकर्म क्षय करता सर्व कषाय भाव क्षय कर। फिर अघातिया क्षय करता है सकल योग पूर्ण जय कर॥ हो जाती निष्कर्म अवस्था कर्मजयी बन जाता है। द्रव्य-भाव-नो कर्म नाशकर कर्मरहित हो जाता है। जो अघातिया क्षय करने का पहले करते व्यर्थ उपाय। वही घातिया कर्मों के बंधन पाते हैं बहु दुःखदाय ॥ उलटी ही गिनती गिनता है करता है सब औंधे काम। कर्म नहीं क्षय कर पाता है पाता है सदैव दुःखधाम ॥ सीधी गिनती गिने अगर तो घातिकर्म क्षय हो जाता। फिर अघातिया भी क्षय होते फिर न लौट वापस आता॥ पहले दर्शन मोह जीतना सम्यग्दर्शन प्रकटाना। फिर चारित्र मोह जीतना निज अरहंत दशा पाना । यही सुविधि है मोक्षमार्ग की इसका ही पालन करना। मत बहकावे में तुम आना. पहले घाति नाश करना।
SR No.007133
Book TitleSiddha Parmeshthi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherKundkund Pravachan Prasaran Samsthan
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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