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________________ परमार्थवचनिका प्रवचन है। चौथे गुणस्थान में असंख्यात जीव हैं; सामान्यपने तो सबको समान गुणस्थान है, दृष्टि भी सबकी समान है; किन्तु ज्ञान का क्षयोपशम सर्वप्रकार से समान नहीं होता। क्षयोपशमभाव तथा उदयभाव का ऐसा स्वभाव है कि उसमें भिन्न-भिन्न जीवों के बीच में तारतम्यता होती है। क्षायिकभाव में तारतम्यता नहीं होती, उसमें तो एक ही प्रकार होता है। लाखों केवली भगवान तेरहवें गुणस्थान में विराजते हैं; उन सभी का क्षायिकभाव समान है, किन्तु औदयिकभाव में भिन्नता है। चौथे गुणस्थान में स्थित असंख्यात जीवों में से उदयभाव में किसी मनुष्यगति का उदय, किसी के नरकगति का उदय, किसी के हजार योजन की बड़ी अवगाहना का उदय, किसी के एक हाथ जितनी छोटी अवगाहना, किसी के अल्पायु का उदय, किसी की असंख्यात वर्षों की आयु, किसी के असाता और किसी के साताइसप्रकार अनेक भाँति की विचित्रता होती है। इसीतरह ज्ञान में भी क्षयोपशम की विचित्रता अनेक प्रकार की होती है। अभी साधक को ज्ञान अवस्था में कुछ परावलम्बन भी है, क्योंकि जब तक इन्द्रियज्ञान है, तब तक परावलम्बन भी है; परन्तु उस परावलम्बन में ज्ञानी मोक्षमार्ग नहीं मानता। किसी भी ज्ञानी का ज्ञान ऐसा नहीं होगा कि पराश्रय से मोक्षमार्ग माने। पराश्रितभाव से मोक्षमार्ग माने तो वह ज्ञान 'ज्ञान' नहीं, 'अज्ञान' है, ज्ञानी के ज्ञान में अमुक परावलम्बीपना होने पर भी मिथ्यापना नहीं है, क्योंकि परावलम्बीपने को वह उपादेयरूप अथवा मोक्षमार्ग मानता नहीं। मोक्षमार्ग तो स्वाश्रित ही है - इसप्रकार हेय-ज्ञेय-उपादेय का स्वरूप वह निःशंक जानता है। .. . उपादेयरूप अपनी शुद्धता; हेयरूप अपनी अशुद्धता और ज्ञेयरूप अन्य छह द्रव्य। यहाँ ज्ञेयरूप ‘अन्य छह द्रव्य' कहे; उनमें स्वद्रव्य ज्ञेयरूप तो है, किन्तु उसको उपादेयरूप ग्रहण किया गया है; क्योंकि शुद्धद्रव्य को जाने, तभी तो उपादेय करे न? इसप्रकार उपादेय कहने पर
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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