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________________ ज्ञाता का मिश्रव्यवहार (१) श्रवण - उपादेयरूप अपने शुद्धस्वरूप के गुणों का प्रेमपूर्वक श्रवण करना, वह एक प्रकार की भक्ति है। जिसके प्रति जिसको भक्ति हो, उसको उसके गुणगान सुनते ही प्रमोद आता है; धर्मी जीव को निजस्वरूप का गुणगान सुनने पर प्रमोद आता है। (२) कीर्तन - चैतन्य के गुणों का उसकी शक्तियों का व्याख्यान करना, महिमा करना ही उसकी भक्ति है। (३) चिन्तन - जिसके प्रति भक्ति हो, उसके गुणों का बार-बार विचार करता है, धर्मी जीव निजस्वरूप के गुणों का बार-बार चिन्तवन करता है। यह भी स्वरूप की भक्ति का एक प्रकार है। (४) सेवन - अन्दर में निजगुणों का पुनः पुनः अध्ययन-मनन करना। (५) वन्दन - महापुरुषों के चरणों में जैसे भक्ति से वन्दन करता है, वैसे ही चैतन्य स्वरूप में परमभक्तिपूर्वक वन्दना, नमना, उसमें लीन होकर परिणमन करना; वह सम्यग्दृष्टि की आत्मभक्ति है। (६) ध्यान - जिसके प्रति परमभक्ति होती है, उसका बार-बार ध्यान हुआ करता है; उसके गुणों का विचार, उपकारों का विचार बारबार आता है, उसीतरह धर्मी जीव अत्यन्त प्रीतिपूर्वक बार-बार निजस्वरूप के ध्यान में प्रवर्त्तता है। यहाँ कोई कहे कि हमको निजस्वरूप के प्रति प्रीति और भक्ति तो बहुत है, परन्तु उसके विचार में या ध्यान में मन बिल्कुल नहीं लगता तो उसकी बात झूठी है। जिसकी वास्तविक प्रीति होगी, उसके विचार या चिन्तन में मन न लगे – ऐसा नहीं हो सकता। अन्य विचारों में तो तेरा मन लगता है और यहाँ स्वरूप के विचार में तेरा मन लगता नहीं - इस बात से तेरे परिणामों का माप निकलता है कि स्वरूप के प्रेम की अपेक्षा अन्य पदार्थों के प्रति प्रेम तुझे विशेष है। जैसे घर में किसी मनुष्य को खाने
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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