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________________ पण्डित बनारसीदासजी । संक्षिप्त परिचय अध्यात्म और काव्य - दोनों क्षेत्रों में सर्वोच्च प्रतिष्ठा प्राप्त महाकवि पण्डित बनारसीदासजी सत्रहवीं शताब्दी के रससिद्ध कवि और आत्मानुभवी विद्वान् थे। आपका जन्म श्रीमाल वंश में लाला खरगसेन के यहाँ वि. सं. १६४३ में माघ सुदी, एकादशी, रविवार को जौनपुर में हुआ था। उस समय इनका नाम विक्रमजीत रखा गया था। बालक विक्रमजीत जब छह-सात माह के थे, तब उनके पिता सकुटुम्ब बनारस की यात्रा को गए। वहाँ के पुजारी ने स्वप्न की बात कहकर बालक का नाम बनारसीदास रखने को कहा और तब से विक्रमजीत बनारसीदास कहलाने लगे।। __ आपने अपने जीवन में जितने उतार-चढ़ाव देखे, उतने शायद ही किसी महापुरुष के जीवन में आये हों। पुण्य और पाप का ऐसा सहज संयोग अन्यत्र विरल है। जहाँ एक ओर उनके पास चाट खाने के लिये भी पैसे नहीं रहे, वहीं दूसरी ओर वे कई बार लखपति भी बने। उनका व्यक्तित्व जहाँ एक ओर शृंगार में सराबोर एवं आशिकी में रस-मग्न दिखाई देता है, वहीं दूसरी ओर पावन अध्यात्म-गंगा में स्नान करता दृष्टिगत होता है। जहाँ एक ओर वे रूढ़ियों में जकड़े एवं मंत्र-तंत्र के घटाटोप में आकण्ठ डूबे दीखते हैं, तो दूसरी ओर उन्हीं का जोरदार खण्डन करते दिखाई देते हैं। । उन्होंने आठ वर्ष की उम्र में पढ़ना प्रारम्भ किया और नौ वर्ष की उम्र में सगाई तथा ग्यारह वर्ष की उम्र में शादी हो गयी। पुण्य-पाप के विचित्र संयोग ने कवि को यहाँ भी नहीं छोड़ा। जिस दिन वे शादी करके लौटे, उसी दिन उनकी बहिन का जन्म तथा नानी का मरण एक साथ हुआ। ___ उन्होंने तीन शादियाँ की तथा उनके सात पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं, पर एक भी सन्तान जीवित नहीं रही। कविवर ने स्वयं अपनी अन्तर्वेदना का वर्णन अर्द्धकथानक में निम्न शब्दों में किया है :
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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