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________________ परमार्थवचनिका प्रवचन और वह आत्मस्वभाव के आश्रित है, पर का आश्रय उसमें किंचित् भी नहीं हैं। 50 वाह ! कितनी स्पष्ट बात है! मोक्षमार्ग कितना स्पष्ट और स्वाधीन !!! अरे, ऐसे स्पष्ट मार्ग को भूलकर यह जीव बाहर में कहीं न कहीं अटकभटक रहा है। सन्तों ने उस मार्ग को स्पष्ट उद्घोषित करके जगत का महान कल्याण किया है। अध्यात्मपद्धति अर्थात् शुद्धपर्यायरूप मोक्षमार्ग में तो मात्र स्वद्रव्य का ही आश्रय है और बन्धभावरूप आगमपद्धति में अनन्तान्त परमाणुओं का स्कन्ध निमित्त है। एक निर्बन्ध परमाणु ( मात्र परमाणु) जीव को बन्ध में निमित्त नहीं होता, अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु इकट्ठे होकर ही बन्ध में निमित्तरूप हो सकते हैं। कम से कम स्थिति - अनुभागवाला कर्म हो, उसमें भी अनन्तानन्त पुद्गल ही होते हैं । ऐसे अनन्तानन्त पुद्गल और उनके आश्रय से होनेवाले अनन्त प्रकार के विकारों की परम्परा को आगमरूप कर्मपद्धति कहते हैं। अभव्य अथवा मिथ्यादृष्टि को सदैव ऐसी आगमरूप कर्मपद्धति ही है; अध्यात्मरूप शुद्धचेतनापद्धति उसको कभी प्रगट नहीं होती और आगमपद्धति कभी नहीं छूटती । वह कभी भी स्वभाव का आश्रय करता नहीं और कर्माश्रय छोड़ता नहीं । धर्मी को स्वभावाश्रय से अध्यात्मपद्धति होने पर आगमपद्धति (विकार की परम्परा) छूटने लगती है। अज्ञानी तो ऐसे शुद्धभाव को पहचानता भी नहीं । उसे तो विकार की पद्धति और रीति का भी सच्चा ज्ञान नहीं है। वह तो पर से विकार की उत्पत्ति मानता है, अथवा शुभरागरूप विकार की पद्धति को ही धर्म की पद्धति मान बैठता है । इसप्रकार उसे एक भी पद्धति का ज्ञान नहीं है - यह बात आगे कहते हैं। अज्ञानी जीव अनुभवहीन होने से मोक्षमार्ग नहीं साध सकता, अतः उसके सम्बन्ध में कथन करते हैं -:
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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