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________________ परमार्थवचनिका प्रवचन साधकदशा असंख्यसमय की ही होती है। कोई भी जीव साधकदशा में अधिकाधिक असंख्यसमय तक ही रह सकता है, इससे अधिक नहीं तथा कोई जीव साधकदशा में अल्प से अल्प काल ही रहकर सिद्ध हो, तो भी साधकदशा का काल असंख्यसमय तो होगा ही, यह नियम है। संसार में सभी जीवों को ये भाव अध्यात्मपद्धतिरूप हों, ऐसा नियम नहीं है। अब आगम और अध्यात्म पद्धतियों में अनन्तता का विचार लिखते हैं। - अनन्तता का स्वरूप दृष्टान्त से दर्शाते हैं। जैसे - बड़ के वृक्ष का एक बीज हाथ में लेकर उसके ऊपर दीर्घदृष्टि से विचार करें तो बड़ के उस बीज में एक बड़ का वृक्ष है, भाविकाल में जैसा कुछ वृक्ष होनेवाला है, वैसे विस्तारसहित वह उस बीज में वास्तविक विद्यमान है, अनेक शाखा-प्रशाखा-पत्र-पुष्प-फलयुक्त है, उसके प्रत्येक फल में ऐसे अनेक बीज हैं। इसप्रकार की अवस्था एक बड़ के बीज में विचरना।पुनः सूक्ष्मदृष्टि से देखें तो उस बड़ के वृक्ष में जो-जो बीज हैं, वे अन्तगर्भित बड़वृक्ष संयुक्त हैं। इसप्रकार एक बड़ में अनेक-अनेक बीज और एक-एक बीज में एक-एक वृक्ष, उनका विचार करें तो भावि नय की प्रधानता से न तो बड़वृक्ष की और न उसके बीजों की मर्यादा प्राप्त हों। इसीप्रकार अनन्तता का स्वरूप जानना। उस अनन्तता के स्वरूप को केवलज्ञानी पुरुष भी अनन्त देखतेजानते-कहते हैं; अनन्त का दूसरा अन्त है ही नहीं कि जो ज्ञान में भासित हो, इसलिये अनन्तता अनन्तरूप ही प्रतिभासती है। इस भाँति आगम और अध्यात्म की अनन्तता जानना। अनन्तता को समझाने के लिए यहाँ वृक्ष और बीज का दृष्टान्त दिया है। वृक्ष और बीज की परम्परा अनादि से है, पहले वृक्ष अथवा पहले बीज? भाई! परम्परा की दृष्टि से दोनों अनादि से हैं और सूक्ष्म विचार करने पर प्रत्येक बीज में भविष्य के अनन्त वृक्ष होने की शक्ति है -
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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