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________________ 26 परमार्थवचनिका प्रवचन इसीप्रकार जिस आत्मा में केवलज्ञानादि पूर्ण शुद्धपर्याय परिणमित हुई है, वह शुद्धनिश्चयात्मकद्रव्य है और उसकी सहकारी उसकी परिणति शुद्धव्यवहार है। देखो! एक द्रव्य का निश्यचय-व्यवहार कितना विचित्र है। द्रव्य को निश्चय और परिणति को व्यवहार कहा है तथा इन दोनों को सहकारी कहा है। वस्तु को किसी पर का सहकार नहीं है, अपने ही द्रव्य-पर्याय में एक दूसरे का सहकार है। __ अशुद्ध उपादानरूप परिणमित द्रव्य को सहकारी अशुद्धपर्यायरूप व्यवहार है। मिश्र उपादानरूप द्रव्य को सहकारी मिश्रपर्यायरूप व्यवहार है।शुद्ध उपादानरूप परिणमित द्रव्य को सहकारी शुद्धपर्यायरूप व्यवहार है। ये तीनों प्रकार संसारी जीव के हैं। जहाँ तक संसार अवस्था है, वहाँ तक व्यवहार है। अत सिद्धों को व्यवहारातीत कहा जाता है। यद्यपि सिद्धभगवान को पर्याय तो है; परन्तु यहाँ संसार-अवस्थित जीव का ही विवेचन होने के कारण सिद्धों को अनवस्थित कहा है। -* उपादान-निमित्त संवाद निमित्त - कहै निमित्त जग में बडूयो, मोतें बड़ौ न कोय। तीन लोक के नाथ सब, मो प्रसादतें होय॥३२॥ उपादान - उपादान कहै तू कहा, चहुँगति में ले जाय। तो प्रसादतें जीव सब, दुःखी होंहि रे भाय॥३३॥ निमित्त - अविनाशी घट-घट बसे, सुख क्यों विलसत नाहिं। शुभ निमित्त के योग बिन, परे-परे बिललाहिं ॥३६ ।। उपादान - शुभ निमित्त इह जीव को, मिल्यो कई भवसार। पै इक सम्यक्दर्श बिन, भटकत फिर्यो गंवार॥३७॥ - भैया भगवतीदास
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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