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________________ 12 परमार्थवचनिका प्रवचन देखो तो सही! कैसा वस्तु का स्वभाव है? एक ही शरीर में अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं, यद्यपि उन सबका शरीर एक ही है; तथापि परिणति सबकी भिन्न-भिन्न है। प्रत्येक की परिणति में कुछ न कुछ विविधता है। एक ही शरीर में रहनेवाले अनन्त-निगोदिया जीवों में भी कोई भव्य है, तो कोई अभव्य। अनन्त भव्य जीवों में भी कोई अल्पकाल में मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं, कोई बहुत काल बाद मोक्ष जानेवाले हैं और कोई ऐसे भी होते हैं कि अनन्तकाल बाद भी मोक्ष प्राप्त न करें। संसारी जीवों की ऐसी परिणति का ज्ञान वीतरागता उत्पन्न होने में कारण हैं; क्योंकि जगत के जीव और पुद्गल अपने-अपने स्वभाव से ही विविध परिणतिवाले हैं, इसमें दूसरे का क्या हस्तक्षेप हैं? यहाँ प्रश्न है कि द्रव्यस्वभाव से सभी जीव सदृश होने पर भी उनकी परिणति में विशेष अन्तर क्यों हैं? उसका उत्तर इसप्रकार है कि द्रव्य ही इस भाँति परिणमित हुआ है, इसमें अन्य द्रव्य का कर्तृत्व रंचमात्र भी नहीं है। जो ज्ञाता होता है, वही इसप्रकार वस्तु के स्वभाव को जानता है। अज्ञानी जीव तो कर्तबुद्धि का मोह करता है। जीव चाहे ज्ञानी हो या अज्ञानी, उसकी कर्तृत्वसीमा तो यही है कि वह चाहे तो ज्ञानपरिणति को करे अथवा मोहपरिणति को करे; परन्तु कोई भी पर में तो रंचमात्र भी परिणमन नहीं कर सकता। जीव और पुद्गल का स्वतंत्र परिणमन है और यही जगत की वस्तुस्थित है। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' - यह जैनदर्शन का मूल सिद्धान्त है। परेक पदार्थ अपने से ही है, दूसरा उसका कारण नहीं है। परमाणु भी अपने स्वभाव सामर्थ्य से भरपूर जड़ेश्वर है। दो परमाणुओं की अवस्था सर्वथा एकरूप नहीं हो सकती। दो परमाणुओं का आकार भले ही समान हो; परन्तु स्पर्श-रस-गंध-वर्णादि अनन्त गुणों की परिणति में कुछ न कुछ असमानता अवश्य होगी ही। इसप्रकार संसार में प्रत्येक जीव या पुद्गल की अवस्था में कुछ न कुछ असमानता
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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