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________________ 10 परमार्थवचनिका प्रवचन चाहिए तथा उन्हें अनन्त गुणों से परिपूर्ण मानना चाहिये। इसमें भी जिसकी भूल हो उसकी आत्मा में परमार्थ के सच्चे विचार का उदय ही नहीं हो सकता; इसलिए प्रथम में प्रथम इस बात की उद्घोषणा की है। जगत में अनन्त जीव भिन्न-भिन्न हैं। एक-एक जीवद्रव्य में अनन्तअनन्त गुण हैं। एक-एक की मिलाकर प्रतिसमय अनन्त पर्यायें हैं अर्थात् अनन्त गुणों की प्रतिसमय एक-एक पर्याय उत्पन्न होती हैं, इसलिए एक समय में सब मिलाकर अनन्त पर्यायें हैं। एक-एक गुण के असंख्य प्रदेश हैं, जितने जीव द्रव्य के प्रदेश हैं, उतने ही प्रत्येक गुण के प्रदेश हैं - इसप्रकार यहाँ जीव के द्रव्य-गुण-पर्याय बताए गये हैं। संसारी जीव के एक-एक प्रदेश पर अनन्त कर्मवगाएँ हैं, जिनमें अनन्तान्त पुद्गलपरमाणु हैं और वे भी अनन्त गुण-पर्यायों सहित विराजमान हैं - ऐसी प्रत्येक संसारी जीव की स्थिति है।.. इस लोक में सिद्ध जीवों की संख्या अनन्त है और सिद्ध जीवों से अनन्तगुणे संसारी जीव हैं। भाई! आलू इत्यादि कन्दमूल के छोटे से छोटे टुकड़े में भी असंख्यात औदारिक शरीर और एक-एक शरीर में सिद्धों से अनन्तगुणे निगोदिया जीव हैं। यद्यपि निगोद से लेकर चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त प्रत्येक संसारी जीव का अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्यों के साथ संयोग है तथापि प्रत्येक जीव द्रव्य व पुद्गल परमाणु पृथक्-पृथक् परिणमन कर रहे हैं। एक द्रव्य भी अन्य किसी द्रव्य से मिलकर एकमेक नहीं हुआ है। भाई! ये अनन्त जीवराशि, अनन्तानन्त, पुद्गलपरमाणु और उनके अनन्त गुण-पर्यायों को एक साथ देखने-जानने की सामर्थ्य सर्वज्ञस्वभावी अपनी आत्मा में हैं; अतः अपनी आत्मा पर लक्ष्य देना चाहिए। अहो! ऐसी वस्तुस्वरूप की बात जैनशासन के अतिरिक्त अन्य कहाँ है? अर्थात् है ही नहीं। अब जीव और पुद्गल की भिन्न-भिन्न परिणति का विचार करते
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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