SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार अनुशीलन मंगलाचरण ( अडिल्ल ) सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चरणमय भाव जो । शिवमग के आधार जिनागम में कहे ।। करने के हैं योग्य नियम से कार्य वे । नियमसार के एकमात्र प्रतिपाद्य वे ।। १ । पद्रव्यों से भिन्न ज्ञानमय आतमा । रागादिक से भिन्न ज्ञानमय आतमा ।। पर्यायों से पार ज्ञानमय आतमा । भेदभाव से भिन्न सहज परमातमा ॥२॥ यह कारण परमातम इसके ज्ञान से । इसमें अपनेपन से इसके ध्यान से ।। बने कार्य परमातम हैं जो वे सभी । सिद्धशिला में थित अनंत अक्षय सुखी ॥ ३ ॥ उन्हें नमन कर उनसा बनने के लिये । अज अनंत अविनाशी अक्षय भाव में ।। अपनापन कर थापित उसमें ही रहूँ । रत्नत्रयमय साम्यभाव धारण करूँ ॥४॥ एकमात्र श्रद्धेय ध्येय निज आतमा । - एकमात्र है परमज्ञेय निज आतमा ।। ज्ञान-ध्यान- श्रद्धान इसी का धर्म है । शिवसुख कारण यही धर्म का मर्म है ॥५॥ भव्यजनों का मानस इसके पाठ से । परभावों में अपनेपन से मुक्त हो ।। अपने में आ जाय यही है भावना | मेरा मन भी नित्य इसी में रत रहे ।। ६॥
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy