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________________ गाथा ९३ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार ___ “यहाँ मुनिदशा की मुख्यता से कथन है, इसलिये ध्यान में लीनता की बात की है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान भी शुद्धात्मा के ध्यान से ही होते हैं । चैतन्यस्वभाव के श्रद्धाज्ञानपूर्वक उसमें विशेष लीनता हो जाने पर रागादि दोषों की उत्पत्ति ही नहीं होती; इसलिए चैतन्य के ध्यान में लीनता ही समस्त अतिचारों का प्रतिक्रमण है। चैतन्य के ध्यान की अस्ति में समस्त दोषों की नास्ति है, इसलिये इसी का नाम प्रतिक्रमण है।" इस गाथा और इसकी टीका में मात्र यही कहा गया है कि एकमात्र ध्यान ही धर्म है; क्योंकि निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान में धर्म के सभी अंग समाहित हो जाते हैं। यही कारण है कि यहाँ कहा गया है कि ध्यान में सभी अतिचारों का प्रतिक्रमण हो जाता है, सभी अतिचारों का निराकरण हो जाता है।।९३|| ___ इसके बाद मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है - ( अनुष्टुभ् ) शुक्लध्यानप्रदीपोऽयं यस्य चित्तालये बभौ । सयोगी तस्यशुद्धात्मा प्रत्यक्षोभवति स्वयम् ।।१२४॥ (हरिमीत ) चित्तमंदिर में सदा दीपक जले शुक्लध्यान का। उस योगि को शुद्धातमा प्रत्यक्ष होता है सदा॥१२४|| .. यह शुक्लध्यानरूपी दीपक जिनके मनमंदिर में जलता है, उस योगी को सदा शुद्धात्मा प्रत्यक्ष होता है। इस कलश में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि जिन योगियों के चित्तरूपी चैत्यालय में शुक्लध्यानरूपी दीपक जलता है; उस योगी के शुद्धात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव निरन्तर रहता ही है। इसमें रंचमात्र भी संदेह की गुंजाइश नहीं है ।।१२४।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७५३
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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