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________________ गाथा ९२ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार (रोला) प्रतिक्रमण भी अरे जहाँ विष-जहर कहा हो। अमृत कैसे कहें वहाँ अप्रतिक्रमण को॥ अरे प्रमादी लोग अधोऽध: क्यों जाते हैं ? इस प्रमाद को त्याग ऊर्ध्व में क्यों नहीं जाते ?||४५|| जहाँ प्रतिक्रमण को भी विष कहा हो; वहाँ अप्रतिक्रमण अमृत कहाँ से हो सकता है, कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि प्रमाददशारूप अप्रतिक्रमण अमृत नहीं है । आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसी स्थिति होने पर भी लोग नीचे-नीचे ही गिरते हुए प्रमादी क्यों होते हैं; निष्प्रमादी होकर ऊपर-ऊपर ही क्यों नहीं चढ़ते ? ___ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “जो शास्त्र ब्रह्मचर्य के शुभभाव को भी धर्म न कहें, वे शादी आदि के अशुभभाव की आज्ञा तो दे ही कैसे सकते हैं? शुभ को भी जो विष कहे, वह अशुभ को तो अमृत कहाँ से कहेगा?' ___ जब हम निश्चय से शुभ को भी विष कहकर छोड़ने के लिए कहते हैं, तब हिंसादिक पापभाव तो आदर योग्य होंगे ही कैसे? शुभ को भी छोड़कर शुद्धस्वरूप में जाने के लिए ही हमने शुभ को विष कहा है। शुभ भी प्रमाद है, उसे छोड़कर अप्रमादी होकर शुद्धस्वरूप में लीन होने के लिए हम कहते हैं; अतः शुभाशुभ से रहित स्वभाव की दृष्टि करके उसमें लीनतापूर्वक शरीर छूटने को भगवान ने उत्तमार्थ-प्रतिक्रमण कहा है। जिसने ऐसी समाधिपूर्वक देहत्याग किया, उसे पुनः देह धारण करना नहीं पड़ता।" उक्त कथन का सार यह है कि अशुभभावरूप जो अप्रतिक्रमण है, पाप प्रवृत्ति करके भी पश्चात्ताप नहीं करने रूपजो वृत्ति है; वह तो महा जहर है और सर्वथा त्याज्य है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७४९ २. वही, पृष्ठ ७४९
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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