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________________ ५० नियमसार अनुशीलन (दोहा) जानकार निजतत्त्व के तज विभाव व्यवहार आत्मज्ञान श्रद्धानमय धरें विमल आचार ||१२२।। व्यवहाररत्नत्रय और समस्त विभावभावों को छोड़कर निजात्मा का अनुभवी तत्त्वों का जानकार बुद्धिमान पुरुष; शुद्धात्मतत्त्व के ज्ञान, श्रद्धान एवं आचरणरूप परिणमित होता है। इस छन्द के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - - “यहाँ समस्त विभाव छोड़ने के लिये कहा है, उसमें व्यवहाररत्नत्रय भी आ जाता है। जो बुद्धिमान निज परमतत्त्व के जाननेवाले हैं, वे समस्त विभाव के साथ व्यवहाररत्नत्रय को भी छोड़कर शुद्धात्मतत्त्व में ही नियत ऐसा ज्ञान, उसकी परमश्रद्धा और उसमें ही आचरण का आश्रय करते हैं। - ऐसा प्रतिक्रमण धर्मात्मा को सदा चौबीस घन्टे होता है, प्रतिक्रमण सुबह-शाम ही होता हो - ऐसा नहीं है। ___यहाँ तो कहते हैं कि जिसने चैतन्यस्वभाव में श्रद्धा-ज्ञान-एकाग्रता की, उसको सदा प्रतिक्रमण है, उसे प्रतिक्रमण में एक समय का भी विरह नहीं होता। त्रिकालशुद्ध चैतन्यमूर्ति आत्मा में दर्शन-ज्ञान और एकाग्रता ही निश्चयध्यान है, वही निश्चयप्रतिक्रमण है, वही निश्चयसामायिक है। निजतत्त्व के अवलम्बन में सामायिक, प्रतिक्रमण, आलोचना आदि सब समा जाते हैं। ___ मुनि को निद्रावस्था में भी चैतन्य के आश्रय से जितनी वीतरागी परिणति है, उतना प्रतिक्रमण है। उन्हें चैतन्य के आश्रय से जो परिणति जितनी प्रगट हुई है, उतना निश्चयप्रतिक्रमण सदा वर्तता है।" इस छन्द में मात्र यही कहा गया है कि क्रोधादि विभाव भावों के समान व्यवहाररत्नत्रय संबंधी शुभराग भी हेय है, छोड़ने योग्य है; क्योंकि उसे छोड़े बिना निश्चयप्रतिक्रमण संभव नहीं है। उक्त विभाव भावों और व्यवहाररत्नत्रय संबंधी विकल्पों को छोड़कर जो मुनिराज शुद्धात्मतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान और आचरणरूपपरिणमित होते हैं; वे सन्त स्वयं ही प्रतिक्रमणस्वरूप हैं।।१२२।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७३८
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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