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________________ नियमसार गाथा ८९ अब इस गाथा में यह कहते हैं कि धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही प्रतिक्रमण है। गाथा मूलत: इसप्रकार है - मोत्तूण अट्टरुदं झाणं जो झादि धम्मसुक्कं वा। सो पडिकमणं उच्चइ जिणवरणिहिट्ठसुत्तेसु ।।८९ ।। (हरिगीत ) तज आर्त एवं रौद्र ध्यावे धरम एवं शुकल को। परमार्थ से वह प्रतिक्रमण यह कहा जिनवर सूत्र में।।८९|| जो जीव आर्त और रौद्र – इन दो ध्यानों को छोड़कर धर्म या शुक्ल - ध्यान को ध्याता है; वह जीव जिनवरकथित सूत्रों में प्रतिक्रमण कहा जाता है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “यह ध्यान के भेदों के स्वरूप का कथन है। स्वदेश के त्याग से, द्रव्य के नाश से, मित्रजनों के विदेश जाने से एवं कमनीय कामिनी के वियोग से इष्टवियोगज और अनिष्टसंयोगों से उत्पन्न होनेवाला अनिष्टसंयोगज नामक आर्तध्यान तथा चोर-जार, शत्रुजनों के बध-बंधन संबंधी महाद्वेष से उत्पन्न होनेवाला रौद्रध्यान - ये आर्त और रौद्र – दोनों ध्यान स्वर्ग और मोक्ष के अपरिमित सुख से प्रतिपक्ष संसार दु:ख के मूल कारण होने के कारण, उन दोनों ध्यानों को पूर्णत: छोड़कर; स्वर्ग और मोक्ष के असीम सुख के मूल – ऐसे जो स्वात्माश्रित निश्चय परमधर्मध्यान तथा ध्यान और ध्येय के विकल्पों से रहित, अन्तर्मुखाकार, इन्द्रियातीत और अभेद परमकला सहित निश्चय शुक्लध्यान – इन धर्म और शुक्ल ध्यानों को ध्याकर जो भव्योत्तम परमभाव की भावनारूप से परिणमित होता है; वह निश्चय
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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