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________________ गाथा ८६ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार चैतन्यविशेषरूप से प्रकाशित निजद्रव्य में चारों ओर से स्थिति करो। इस छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “इसप्रकार अपने स्वरूप में सावधानी रखनेवाले पुरुषों ने उत्सर्ग तथा अपवाद मार्ग द्वारा चारित्र का सेवन किया है। . अपने शुद्धस्वभाव में निर्विकल्परूप से ठहर जाना उत्सर्गमार्ग है और जब उस रूपसे ठहर न सके; तब अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करे, उपदेश दे, उपदेश सुने, शास्त्र रचना करे - यह सब अपवादमार्ग है।' ___ इसप्रकार का चारित्र उत्सर्ग और अपवाद मार्ग द्वारा प्राप्त करके, क्रमशः अट्ठाईस मूलगुण के पालन आदि के शुभराग से अत्यन्त निवृत्त होकर चैतन्यसामान्य और विशेषरूप प्रकाशवाले अपने आत्मा में निर्विकल्पपने स्थिति करो । स्वरूप में ऐसे ठहर जाओ कि फिर अट्ठाईस मूलगुण का विकल्प उत्पन्न ही न हो - इसप्रकार शुभराग का निषेध कराया।” इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि उत्सर्ग और अपवाद मार्ग की मैत्रीवाले इस मुक्तिमार्ग को पुराणपुरुषों ने विशेष आदरपूर्वक अपनाकर मुक्ति प्राप्त की है; इसलिए हे मुनिजनो! तुम भी उन्हीं के समान जगत से पूर्ण निवृत्ति लेकर सामान्य-विशेषात्मक निजद्रव्य में स्थिति करो, लीन हो जाओ। एकमात्र इसमें ही सार है, शेष सब असार संसार है ।।४१ ।। इसके बाद एक छन्द मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है (मालिनी ) विषयसुखविरक्ताः शुद्धतत्त्वानुरक्ताः तपसि निरतचित्ता:शास्त्रसंघातमत्ताः । गुणमणिगणयुक्ता:सर्वसंकल्पमुक्ताः ___ कथमतवधूटीवल्लभा न स्युरेते ।।११५।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७०२ २. वही, पृष्ठ ७०२
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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