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________________ गाथा ८६ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार करता है; वह मुनि निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है; क्योंकि उसे परमतत्त्वगत निश्चय-प्रतिक्रमण है; इसलिए वह तपोधन सदा शुद्ध है।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __ “वीतराग-सर्वज्ञकथित मार्ग के अतिरिक्त सब मार्ग उन्मार्ग हैं। उन उन्मार्गों को त्याग कर जो सर्वज्ञ के कहे हुए आत्मा के स्वरूप में ठहरते हैं, वे प्रतिक्रमणस्वरूप हैं।' पहले तो सम्यग्दर्शन के उपरान्त शुभ की बात की थी; अब यहाँ शुभरहित शुद्ध की बात करते हैं। अट्ठाईस मूलगुण का पालन, वह शुभराग है; उससे रहित होकर जो मुनिराज शुद्धभाव में ठहरते हैं, उन्हें निश्चयचारित्र होता है और प्रतिक्रमण भी होता है। सम्यग्दर्शन बिना इनमें से एक भी नहीं होता। ___धर्मी जीव को आत्मा के सच्चे भानसहित विपरीत मान्यता का त्याग, वह मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण है और स्वभाव में लीनता करने पर अव्रत का त्याग, वह अव्रत का प्रतिक्रमण है। प्रथम के बिना द्वितीय नहीं हो सकता। इसप्रकार सम्यग्दृष्टि जीव व्यवहार से अट्ठाईस मूलगुणात्मक मार्ग में और निश्चय से दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप अपने आत्मा में स्थिरभाव करते हैं, अतः वे मुनि निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप कहे जाते हैं। प्रथम वस्तुस्वरूप की पहचान करना चाहिए; उसके उपदेशक आप्तपुरुष की पहिचान बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता, सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र नहीं होता, चारित्र के बिना केवलज्ञान नहीं होता और केवलज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। अतः जैसा है, वैसा यथार्थ ज्ञान करना चाहिए।" १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६९६ २. वही, पृष्ठ ७०० ३. वही, पृष्ठ ७०१
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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