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________________ २४७ कलश पद्यानुवाद ( रोला) सभी शुभाशुभभावों के निषेध होने से। अशरण होंगे नहीं रमेंगे निज स्वभाव में। अरे मुनीश्वर तो निशदिन निज में ही रहते। निजानन्द के परमामृत में ही नित रमते॥५०॥' ( हरिगीत ) मन-वचन-तन व इंद्रियों की वासना का दमक मैं। भव उदधि संभव मोह जलचर और कंचन कामिनी।। की चाह को मैं ध्यानबल से चाहता हूँ छोड़ना। निज आतमा में आतमा को चाहता हूँ जोड़ना।।१३४।। (दोहा) वही एक मेरे लिए परमज्ञान चारित्र। पावन दर्शन तप वही निर्मल परम पवित्र ।।५१॥ सत्पुरुषों के लिए वह एकमात्र संयोग। मंगल उत्तम शरण अर नमस्कार के योग्य |॥५२॥ योगी जो अप्रमत्त हैं उन्हें एक आचार। स्वाध्याय भी है वही आवश्यक व्यवहार||५३।। (हरिगीत ) इक आतमा ही बस रहा मम सहज दर्शन-ज्ञान में। संवर में शुध उपयोग में चारित्र प्रत्याख्यान में। दुष्कर्म अर सत्कर्म-इन सब कर्म के संन्यास में। मुक्ति पाने के लिए अन कोई साधन है नहीं ॥१३५ ।। (भुजंगप्रयात ) किया नष्ट जिसने है अघतिमिर को, रहता सदा सत्पुरुष के हृदय में। कभी विज्ञजन को निर्मल अनिर्मल, निर्मल-अनिर्मल देता दिखाई। १. समयसार, कलश १०४ २. पद्मनंदिपंचविंशतिका, एकत्वसप्तति अधिकार, श्लोक ३९ ३. वही, श्लोक ४० ४. वही, श्लोक ४१
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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