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________________ नियमसार गाथा ८३ अब इस गाथा में निश्चय प्रतिक्रमण का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है - मोत्तूण वयणरयणं रागादीभाववारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं ।।८३ ।। (हरिगीत ) वचन रचना छोड़कर रागादि का कर परिहरण। ध्याते सदा जो आतमा होता उन्हीं को प्रतिक्रमण ||८|| वचन रचना को छोड़कर, रागादिभावों का निवारण करके जो आत्मा का ध्यान करता है, उसे प्रतिक्रमण होता है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "मुमुक्षुजनों द्वारा प्रतिदिन बोले जानेवाला समस्त पापक्षय का हेतुभूत जो वचनात्मक प्रतिक्रमण है; यहाँ उसका निराकरण करते हैं। परमतप का कारणभूत जो सहज वैराग्य है, उस वैराग्यरूप अमृत के समुद्र में ज्वार लाने के लिए, उछालने के लिए पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान जो जीव हैं; उनके अप्रशस्त वचन रचना से मुक्त होने पर भी जब वे प्रतिक्रमण सूत्र की विषम (विविध) वचन रचना को छोड़कर, संसाररूपी बेल की जड़ जो मोह-राग-द्वेष हैं, उनका भी निवारण करके अखण्डानन्दमय निज कारण परमात्मा को ध्याते हैं; तब परमतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान के सन्मुख उन जीवों को वचन संबंधी सम्पूर्ण व्यापार रहित निश्चय प्रतिक्रमण होता है।" __इस गाथा के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “मुनिराज प्रातः व सायं प्रतिक्रमण करते हैं। मुनि जब अपने शुद्धस्वभाव में स्थिर नहीं रह सकते, तब वे प्रतिक्रमण की विधि का पाठ बोलते हैं; उस परिणाम में अशुभ का नाश होता है, वह शुभभावरूप
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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