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________________ नियमसार गाथा १२० विगत गाथा में यह कहा था कि ध्यान ही प्रायश्चित्त है और अब इस गाथा में यह कह रहे हैं कि आत्मा का ध्यान करनेवाले के नियम से नियम (चारित्र) होता है । गाथा मूलतः इसप्रकार है - सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि तस्स दुणियम हवे णियमा ।।१२०।। (हरिगीत) शुभ-अशुभ रचना वचन वारागादिभाव निवारिके। जो करें आतम ध्यान नर उनके नियम से नियम है।।१२०|| शुभाशुभवचनरचना और रागादिभावों का निवारण करके जो भव्यजीव आत्मा को ध्याता है, उसे नियम से नियम होता है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "यह शुद्धनिश्चयनय के स्वरूप का कथन है। जो परमतत्त्वरूपी महातपोधन सदा संचित सूक्ष्म कर्मों को मूल से उखाड़ देने में समर्थ निश्चयप्रायश्चित्त में परायण रहता हुआ मनवचन-काय को संयमित किया होने से संसाररूपी बेल के मूलकंदात्मक शुभाशुभस्वरूप समस्त प्रशस्त-अप्रशस्त वचन रचनाओं का निवारण करता है; केवल उस वचनरचना का ही तिरस्कार नहीं करता; किन्तु समस्त मोह-राग-द्वेषादि भावों का निवारण करता है और अनवरतरूप से अखण्ड, अद्वैत, झरते हुए सुन्दर आनन्दवाले, अनुपम, निरंजन निजकारणपरमात्मतत्त्व की सदा शुद्धोपयोग के बल से संभावना करता है, सम्यक् भावना करता है; उस महातपोधन को नियम से शुद्धनिश्चयनियम है - ऐसा भगवान सूत्रकार का अभिप्राय है।" ___ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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