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________________ २०६ नियमसार अनुशीलन . (हरिगीत) शुद्धात्मा के ज्ञान की संभावना जिस संत में। आत्मरत उस सन्त को तो नित्य प्रायश्चित्त है। धो दिये सब पाप अर निज में रमे जो संत नित। मैं नमूं उनको उन गुणों को प्राप्त करने के लिए।।१८३|| इस लोक में जो मुनिराज शुद्धात्मज्ञान की सम्यक् भावना रखते हैं; उन मुनिराज को प्रायश्चित्त है ही। जिन्होंने पापसमूह को धो डाला है, उन मुनिराज को उनमें उपलब्ध गुणों की प्राप्ति हेतु मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "त्रिकाली शुद्धात्मज्ञान की सम्यक्भावना भानेवाले मुनियों को ही वास्तव में प्रायश्चित्त होता है। अहो! लाखों, करोड़ों कथन करके भी अंत में तो द्रव्यस्वभाव में अन्तर्मुख होने का ही उपदेश देते हैं। : प्रायश्चित्त तो निर्मलपर्याय है, परन्तु उसका आधार कौन है? । उसका आधार तो शुद्ध ज्ञानस्वभावी ध्रुव कारणरूप वस्तु ही है। उसे स्वीकार करने से और उसकी भावना से ही प्रायश्चित्त होता है। उस स्वभाव की भावना करने से पुण्य-पाप की उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए कहा है कि जिन्होंने स्वभाव की सम्यक्भावना से समस्त पापसमूह को नष्ट कर दिया है. - उन मुनीन्द्रों को उनके गुणों की प्राप्ति के लिए मैं नित्य वंदन करता हूँ। ...... देखो, यह प्रायश्चित्त किसी दूसरे से लेना नहीं पड़ता; परन्तुं अन्तर में स्थित द्रव्य की भावना द्वारा ही प्रगट होता है।" ... ___ इस कलश में दो बातें कही गई हैं। प्रथम तो यह कि जो वीतरागी संत शुद्धात्मज्ञान की सम्यक् भावना रखते हैं; उनके प्रायश्चित्त सदा ही है और दूसरी बात यह कि उन जैसे मुण मुझे भी प्राप्त हो जावें - इस भावना से सम्पूर्ण पाप भावों से रहित भावलिंगी सन्तों को मैं नमस्कार करता हूँ।।१८३।। ... १. नियमसार प्रवचन, पृष्ट ९७८-९७९
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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