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________________ नियमसार गाथा ११६ विगत गाथा में चारों कषायों को जीतने का उपाय बताकर अब इस गाथा में कहते हैं कि शुद्धज्ञान को स्वीकार करनेवाले को प्रायश्चित्त होता है। गाथा मूलतः इसप्रकार है - उक्किट्ठो जो बोहो णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं । जो धरइ मुणी णिच्चं पायच्छित्तं हवे तस्स ।। ११६ ।। ( हरिगीत ) उत्कृष्ट निज अवबोध अथवा ज्ञान अथवा चित्त जो । वह चित्त जो धारण करे वह संत ही प्रायश्चित्त है ||११६|| जो मुनिराज अनंतधर्मवाले उस त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा का उत्कृष्टबोध, ज्ञान अथवा चित्त को नित्य धारण करते हैं; उन मुनिराज को प्रायश्चित्त होता है । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "यहाँ शुद्धज्ञान को स्वीकार करनेवाले को प्रायश्चित्त है - ऐसा कहा है। जो विशेष धर्म उत्कृष्ट है, वस्तुतः वही परमबोध है - ऐसा अर्थ है । बोध, ज्ञान और चित्त अलग-अलग पदार्थ नहीं हैं, एक ही हैं। ऐसा होने से ही उस परमधर्मी जीव को प्रायश्चित्त है अर्थात् उत्कृष्टरूप से चित्त है, ज्ञान है । जो परमसंयमी इसप्रकार के चित्त को धारण करता है, उसे वस्तुतः निश्चयप्रायश्चित्त होता है।" 1 आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "त्रिकाली सहज ज्ञानस्वभाव ही धर्मीजनों के लिए निश्चय से प्रायश्चित्त है । वस्तु तो त्रिकाल प्रायश्चित्तरूप ही है और उसे स्वीकार करने पर पर्याय में प्रायश्चित्त होता है । यहाँ प्रायश्चित्त होने की बात
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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