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________________ गाथा ११५ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार २०१ (वीर) अरे हस्तगत चक्ररत्न को बाहुबली ने त्याग दिया। यदि न होता मान उन्हें तो मुक्तिरमा तत्क्षण वरते॥ किन्तु मान के कारण ही वे एक बरस तक खड़े रहे। इससे होता सिद्ध तनिक सा मान अपरिमित दुख देता।।६१|| अपने दाहिने हाथ में समागत चक्र को छोड़कर जब बाहुबली ने दीक्षा ली थी, यदि मान कषाय नहीं होती तो वे उसी समय मुक्ति प्राप्त कर लेते; किन्तु वे मान कषाय के कारण चिरकाल तक क्लेश को प्राप्त हुए। इससे सिद्ध होता है कि थोड़ा भी मान बहुत हानि करता है। __उक्त छन्द में बाहुबली मुनिराज के उदाहरण के माध्यम से यह सिद्ध किया गया है कि थोड़ा-सा भी मान चिरकाल तक दुःख भोगने को बाध्य कर देता है||६१॥ माया कषाय से होनेवाले दोषों का निरूपक तीसरा छंद इसप्रकार है (अनुष्टुभ् ) भेयं मायामहागन्मिथ्याघनतमोमयात् । यस्मिन् लीना न लक्ष्यन्ते क्रोधादिविषमाहयः॥६२ ।' (वीर) अरे देखना सहज नहीं क्रोधादि भयंकर सांपों को। क्योंकि वे सब छिपे हुए हैं मायारूपी गौं में।। मिथ्यातम है घोर भयंकर डरते रहना ही समुचित। यह सब माया की महिमा है बचके रहना ही समुचित||६२।। जिस मायारूपी गड्ढे में छिपे क्रोधादि भयंकर सांपों को देखना सहज नहीं है; मिथ्यात्वरूपी घोर अंधकारवाले उस मायारूपी महान गड्ढे से डरते रहना योग्य है। इस छन्द में माया कषाय को मिथ्यात्वरूपी घोर अंधकारवाला गड्ढा (गत) बताया गया है और साथ में यह भी कहा गया है कि उस मायारूपी गड्ढे में क्रोधादि कषायरूपी भयंकर विषैले सांप छुपे रहते १. आत्मानुशासन, छन्द २२१
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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