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________________ १८८ नियमसार अनुशीलन उक्त छन्दों का भाव आध्यात्मिकसत्परुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “जिसप्रकार पूर्णमासी का चन्द्रमा समुद्र को उछालता है अर्थात् जब सम्पूर्ण कलाओं सहित चन्द्रमा आसमान में प्रकाशमान होता है, तब समुद्र अपनी चंचल लहरों से उछलने लगता है। __उसीप्रकार चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा में भरे हुए शान्तरस समुद्र को उछालने के लिए अर्थात् पर्याय में प्रगट करने के लिए श्री मज्जिनेन्द्रपरमात्मा सम्पूर्ण कलाओं सहित उदित चन्द्रमा समान है। उन्होंने अपने केवलज्ञानरूपी सूर्य के तेज से मोहरूपी अंधकार का नाश किया है। त्रिकाली द्रव्यस्वभाव तो जयवंत है ही, परन्तु उसके आश्रय से प्रगट होनेवाली सर्वज्ञता भी जयवंत वर्तती है। सर्वज्ञ भगवान की पर्याय में सदा शान्तरस उछल रहा है - ऐसे सर्वज्ञदेव सदा जयवंत वर्ते।' ___ अहो ! केवलज्ञान जयवंत वर्त रहा है। - ऐसा कहकर मुनिराज ने स्वयं स्वयं के लिए केवलज्ञान की भावना प्रगट की है।" उक्त दोनों छन्दों में से प्रथम छन्द में जिनेन्द्र भगवान की उपमा चन्द्रमा और सूर्य से दी है। कहा गया है कि हे भगवन् ! आप शान्त रसरूपी अमृत के सागरको उल्लसित करने के लिए चन्द्रमा के समान हो और मोहान्धकार के नाश के लिए ज्ञानरूपी सूर्य हो। दूसरे छन्द में कहा गया है कि जन्म, जरा और मृत्यु को जीतनेवाले, भयंकर राग-द्वेष के नाशक, पापरूपी अंधकार के नाशक सूर्य और परमपद में स्थित जिनेन्द्रदेव जयवंत हैं ।।१७८-१७९।। अधिकार के अन्त में टीकाकार मुनिराज स्वयं लिखते हैं कि इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में परमालोचनाधिकार नामक सातवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९५७-९५८ २. वही, पृष्ठ ९५८-९५९
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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