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________________ १८५ गाथा ११२ : परमालोचनाधिकार जाता है, नीचे गिरने का नहीं। अत: पुण्य को छोड़ने के उपदेश से पाप करने का उपदेश देने का भाव ग्रहण करना तो ठीक नहीं है। हो सकता है कि इसीप्रकार की कोई प्रवृत्ति उस समय रही हो, जिसके कारण टीकाकार मुनिराज को इसप्रकार का छन्द लिखने का भाव आया हो। जो भी हो, पर शुद्धज्ञानघन सर्वोत्तम आत्मतत्त्व के जानकार तो इसप्रकार की सरागता को प्राप्त नहीं हो सकते ।।१७५।। छठवाँ और सातवाँ छन्द इसप्रकार है - (हरिणी) जयति सहजं तत्त्वं तत्त्वेषु नित्यमनाकुलं सततसुलभं भास्वत्सम्यग्दृशां समतालयम् । परमकलया सार्धं वृद्धं प्रवृद्धगुणैर्निजैः। स्फुटितसहजावस्थं लीनं महिम्नि निजेऽनिशम् ।।१७६ ।। सहजपरमं तत्त्वं तत्त्वेषु सप्तसु निर्मलं सकलविमलज्ञानावासं निरावरणं शिवम् । विशदविशदं नित्यं बाह्यप्रपंचपराङ्मुखं किमपि मनसां वाचां दूरं मुनेरपि तन्नुमः ।।१७७ ।। (रोला) सब तत्त्वों में सहज तत्त्व निज आतम ही है। सदा अनाकुल सतत् सुलभ निज आतम ही है। परमकला सम्पन्न प्रगट घर समता का जो। निज महिमारत आत्मतत्त्व जयवंत सदा है।।१७६|| सात तत्त्व में प्रमुख सहज सम्पूर्ण विमल है। निरावरण शिव विशद नित्य अत्यन्त अमल है। उसे नमन जो अति दूर मुनि-मन-वचनों से। परपंचों से विलग आत्म आनन्द मगन है।।१७७|| तत्त्वों में वह सहज आत्मतत्त्व सदा जयवन्त है; जो सदा अनाकुल है, निरन्तर सुलभ है, प्रकाशमान है, सम्यग्दृष्टियों को समता का घर
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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