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________________ १७२ नियमसार अनुशीलन __उक्त दोनों छन्दों में मात्र यही कहा गया है कि यद्यपि इस अपार घोर संसार में अनन्त जीव आकुलतारूपी भट्टी में निरंतर जल रहे हैं, अनन्त दुःख भोग रहे हैं; तथापि मुनिजन तो समताभाव के प्रसाद से समतारूपी अमृत के बर्फीले गिरि पर विराजमान हैं और अनंत शीतलता का अनुभव कर रहे हैं, सुख-शान्ति में लीन हैं। सभी प्रकार के सुकृत और दुष्कृतों से मुक्त सिद्ध जीव कभी भी विभावभावरूप काया में प्रवेश नहीं करते, इसलिए मैं भी अब सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) के कर्मजाल को छोड़कर मुमुक्षु मार्ग में जाता हूँ। जिस निष्कर्म वीतरागी मार्ग पर मुमुक्षु लोग चलते हैं; मैं भी उसी मार्ग को अंगीकार करता हूँ। - पाँचवाँ और छठवाँ छन्द इसप्रकार है - (अनुष्टुभ् ) प्रपद्येऽहं सदाशुद्धमात्मानं बोधविग्रहम् । भवमूर्तिमिमांत्यक्त्वा पुद्गलस्कन्धबन्धुराम् ।।१६६।। अनादि मम संसाररोगस्यागदमुत्तमम् । शुभाशुभविनिर्मुक्तशुद्धचैतन्यभावना ।।१६७।। (दोहा) अस्थिर पुद्गलखंध तन तज भवमूरत जान । सदा शुद्ध जो ज्ञानतन पाया आतम राम ||१६६।। शुध चेतन की भावना रहित शुभाशुभभाव। औषधि है भव रोग की वीतरागमय भाव ||१६७|| पौद्गलिक स्कंधों से निर्मित यह अस्थिर शरीर भव की मूर्ति है, मूर्तिमान संसार है । इसे छोड़कर मैं ज्ञानशरीरी सदा शुद्ध भगवान आत्मा का आश्रय ग्रहण करता हूँ। शुभाशुभभावों से रहित शुद्धचैतन्य की भावना मेरे अनादि संसार रोग की उत्कृष्ट औषधि है। स्वामीजी इन छन्दों के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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