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________________ गाथा ११० : परमालोचनाधिकार १६१ यह आलुछन निश्चय परम-आलोचना का प्रकार है, वीतरागी भाव है। यह निर्मलपर्यायरूप बाह्यतत्त्व परलक्ष्य करने से प्रगट नहीं होता, यह तो अंतरंगस्वभाव के आश्रय से प्रगट होता है। ___ समस्त कर्म विषम विषवृक्ष है । पाप तो विषम विष है ही, परन्तु पुण्य भाव भी विषम विष का झाड़ है। उस विषवृक्ष की जड़ मिथ्यात्व है। परमपारिणामिकस्वभाव का आश्रय करने पर ही इस विषवृक्ष की जड़ें उखड़ती हैं। चैतन्यस्वरूप सहज परमभाव चौरासी के जनममरण के विषवृक्ष को जड़ से उखाड़ फेंकता है। सम्यग्दृष्टि को ऐसे परमभाव की दृष्टि होती है, उसे पर्यायबुद्धि नहीं होती।" इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यह बताया गया है कि परमपारिणामिकभाव के आश्रय से उत्पन्न हुआ आत्मावलोकन (आत्मानुभूति) रूप पर्याय ही आलुंछन नामक आलोचना है। यह निश्चय आलुंछनरूप आलोचना का स्वरूप है। परमपारिणामिकभावरूप परमभाव पुण्य-पापरूप समस्त कर्मरूपी विषवृक्ष को जड़मूल से उखाड़ फेंकने में समर्थ है। यद्यपि यह परमभाव मिथ्यादृष्टियों के भी विद्यमान है; तथापि अविद्यमान जैसा ही है, क्योंकि उसके होने का लाभ उन्हें प्राप्त नहीं होता। इस बात को यहाँ सुमेरु पर्वत की तलहटी में विद्यमान स्वर्णराशि के उदाहरण के माध्यम से समझाया गया है। विद्यमान होने पर भी जिसप्रकार उक्त स्वर्ण का उपयोग संभव नहीं है; उसीप्रकार मिथ्यादृष्टियों के लिए उक्त परमभाव का उपयोग संभव नहीं है। ___ यहाँ एक प्रश्न संभव है कि नित्यनिगोद के जीवों को भी, वह परमभाव शुद्धनिश्चयनय से अभव्यत्वपारिणामिकभाव नाम से संभव नहीं है – टीका में समागत इस कथन का भाव ख्याल में नहीं आया। इस प्रकरण का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "निश्चय की दृष्टि से तो समस्त जीवों का परमस्वभाव ज्यों का १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९२१-९२२ २. वही, पृष्ठ ९२२
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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