SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा १०९ : परमालोचनाधिकार १५५ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “परमगुरु से प्रसाद से और स्वयं की पात्रता से भव्यजीव सहज शुद्धात्मतत्त्व का अनुभव करके, उसमें ही स्थिर होकर मोक्ष सुख प्राप्त करते हैं । वह सहजतत्त्व ही परम उपादेय है । इसलिए टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारि देव कहते हैं कि 'भेद के अभाव की दृष्टि से जो सिद्धि हुई है, उससे उत्पन्न सौख्य के द्वारा जो शुद्ध है - ऐसे किसी अद्भुत सहजतत्त्व को मैं सदा अति अपूर्व रीति से भाता हूँ।' देखो, मुनियों की ऐसी भावना होती है। जिसे व्यवहार की, भेद की भावना होती है तथा उसके आश्रय में सुख दिखाई देता है, उसे मोक्ष सुख प्राप्त नहीं होता, और जो भव्यजीव शुद्धात्मा को जानकर उसकी भेदरहित भावना करते हैं, उसमें ही एकाग्र होते हैं; वे जीव मुक्ति सुख प्राप्त करते हैं।" __इस छन्द में सहजतत्त्व अर्थात् निज शुद्धात्मा की भावना भाई गई है। कहा गया है कि आनन्द के कन्द, ज्ञान के घनपिण्ड निज शुद्धात्मा के ज्ञान, श्रद्धान एवं अनुष्ठान से अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है; इसलिए मैं उक्त सहजतत्त्व की अनुभूति करने की भावना भाता हूँ, कामना करता हूँ।।१५७।। पाँचवाँ छन्द इसप्रकार है - (वसंततिलका) निर्मुक्तसंगनिकरं परमात्मतत्त्वं ___निर्मोहरूपमनघं परभावमुक्तम् । संभावयाम्यहमिदं प्रणमामि नित्यं निर्वाणयोषिदतनूद्भवसंमदाय ।।१५८।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९०६
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy