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________________ गाथा १०६ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार १३७ अहो! ऐसे सहजतत्त्व का भान जिस पर्याय में हुआ हो, वह पर्याय भी धन्य है - ऐसी महिमापूर्वक तत्त्ववेत्ता उस सहजतत्त्व को ही नमस्कार करते हैं । हे जीव ! ऐसे सहजतत्त्व की महिमा करो, रुचि करो और उसकी ही भावना करो, क्योंकि उसकी भावना से ही प्रत्याख्यान होता है। जो जीव ऐसे तत्त्व की महिमापूर्वक रुचि करता है, वह मोक्षमार्ग में आरूढ़ हो जाता है; इसलिए ऐसे सहजतत्त्व को यथार्थ जानकर उसकी ही भावना करना चाहिए । २" इन सभी छन्दों में सहजतत्त्वरूप भगवान आत्मा की महिमा ही बताई जा रही है। इस छन्द में यह कहा जा रहा है कि इस भगवान आत्मा ने पुण्य और पाप - दोनों ही भावों का नाश किया है। तात्पर्य यह है कि इस सहजतत्त्वरूप त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में पुण्य-पाप वहीं इसका स्वभाव ही पुण्य-पाप के भावों के अभावरूप है । इस स्थिति को ही यहाँ नाश कहा है। यह भगवान आत्मा ज्ञान का महल है, इसे तत्त्ववेत्ता भी प्रणाम करते हैं। यह कृतकृत्य है; क्योंकि इसे कोई काम करना शेष नहीं है। यह स्वभाव से ही कृतकृत्य है । यह अनंतगुणों का धाम है और इसमें मोहरूपी रात्रि का अभाव कर दिया है, यह निर्मोह है । ऐसे सहजतत्त्व को हम सभी बारंबार नमस्कार करते हैं ।। १५१ ।। अधिकार के अन्त में टीकाकार मुनिराज स्वयं लिखते हैं कि इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार ( आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार नामक छठवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ । १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८७७ २ . वही, पृष्ठ ८७८
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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