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________________ गाथा १०२ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार १०७ मेरा परमात्मा शाश्वत है, कथंचित् एक है, सहज परम चैतन्यचिन्तामणि है, सदा शुद्ध है और अनंत निज दिव्य ज्ञान-दर्शन से समृद्ध है। यदि मेरा आत्मा ऐसा है तो फिर मुझे बहुत प्रकार के बाह्यभावों से क्या लाभ है, क्या प्रयोजन है, उनसे कौनसा फल प्राप्त होनेवाला है ? तात्पर्य यह है कि अपने आत्मा से भिन्न पदार्थों से कोई लाभ नहीं है। स्वामीजी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "मेरा आत्मा ही चैतन्यचिन्तामणि है, तो फिर बाह्य निमित्तों से अथवा विकल्पों से मुझे क्या प्रयोजन है? मैं अपने चैतन्यचिन्तामणि को लक्ष में लेकर उसमें एकाग्र हो जाऊँ। अरिहन्त परमात्मा भी मेरे लिए बाह्य हैं, मेरे लिए तो मेरा आत्मा ही शाश्वत है और उसी के आश्रय से मुझे लाभ है। __बाह्य समृद्धि को धर्मी अपनी नहीं मानता तथा पुण्य के भावों को भी वह अपने स्वरूप की समृद्धि नहीं मानता, यही प्रत्याख्यान है।' चिन्तामणि के समक्ष चिन्तवन करने से तो जड़ सामग्री मिलती है; परन्तु धर्मी कहते हैं कि मेरे हाथ में जो चिन्तामणि है, उसमें से वह सब -मिले, जो मैं चिन्तवन करूँ । इसके अलावा बाहर का कोई पदार्थ मेरा नहीं है, सारा पदार्थसमूह मेरे से बाह्य है, इसलिए मैं तो निज चिन्तामणि का चिन्तवन करता हूँ।" इस कलश में भी यही कहा गया है कि जब मेरा भगवान आत्मा ही चैतन्यचिन्तामणि है, सभी चिन्ताओं को समाप्त करनेवाला है तो फिर मैं बाह्य संयोगों से कुछ चाहने की भावना क्यों करूँ ? मेरा यह भगवान आत्मा न केवल चैतन्य चिन्तामणि है, अपितु शाश्वत है,सदा रहनेवाला है; इन संयोग का वियोग होना तो सुनिश्चित ही है, इनसे मुझे क्या लेना-देना है ? मेरा भगवान आत्मा सदा शुद्ध है, उसमें अशुद्धि का प्रवेश ही नहीं है। अशुद्धि तो संयोगजन्य है, संयोगभावरूप है; उससे भी मेरा कोई संबंध नहीं है।।१३८|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८२७ २. वही, पृष्ठ ८२७
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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